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योगोद्वान को पोप लोला
प्राचार्यों ने योग उपाधान के बायने से हजारों ही क्यों पर लाखों रूपये एकत्र कर अपने संयम को निलाम कर पतित एवं परिग्रहचारी बन गये । यह बात केवल एक मैं ही नहीं लिख रहा हूँ पर कई प्रसिद्ध अखबारों में अनेक बार छप चुकी है जिसका किसी ने उत्तर नहीं दिया कि हमको परिग्रहधारी क्यों लिखते हो या लिखने वालों के पास क्या साबुती है कारण वे थोड़ा ही चूं करते तो जनता प्रत्यक्ष प्रमाण बतलाने के लिये तैय्यार है । ___योगोद्वाहन में परिग्रह का संग्रह तो होता ही है पर साथ में साधुओं को आधाकर्मी आहारादि का भी दोष लगना है कारण भगवत्यादि के योगों में आदेश देकर साधुओं के लिये आहार बनवाना पड़ता है जिसको शास्त्रकारों ने अनन्त संसारी बतलाया है इत्यादि यदि योग और उपधान के विषय अधिक जानना हो वह हमारे चरित्र नायकजी का बनाया हुआ 'मेमर नाम' नामक पुस्तक मंगा कर अवश्य पढ़ें। ___स्वामी अत्मारामजी ढूंढ़ियापन्थ को छोड़ कर स्वामि बटेराय जी के पास छोटी दीक्षा ली थी पर प्रचलित प्रवृति के अनुसार योग करना था और यज्ञकों की भांति उस समय ऐसी बाड़ाबन्धी कर रखी थी कि बिना पन्यास बड़ी दीक्षा के योग करवा नहीं सके अतः स्वामि आत्मारामजी को डेलों के उपासरे पन्यास के पास जाना पड़ा पर पन्यास ऐसा निस्पृही साधु नहीं था कि खाली हाथें योग करवा दे । पन्यास ने आत्मारामजी को पूछा कि--
पन्यास-आप योग करना चाहते हो पर किसी श्रावक को लाये हो या नहीं ?
श्रात्मारामजी क्यों श्रावक की क्या जरूरत है ?