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आदर्श-ज्ञान
११० क्रमशः बिहार कर पाली पधारे वहाँ भी आठ दिन तक आपका झंडेली व्याख्यान होता रहा।
२३–सं० १९६७ का चातुर्मास-कालु अानन्दपुर
पूज्यजी महाराज की आज्ञा आई कि छगनलालजी और गयवरचंदजी को नगरी साधुओं की व्यावच्च के लिए फौरन रवाना कर दो। फूलचन्दजी ने दोनों साधुओं को मालवानगरी की ओर बिहार करवा दिया। जब दोनों साधु सीयाट पहुँचे, तो गयवरचंदजी के नेत्रों में जोर से तकलीफ हो गई। छगनलालजी एक दिन वहाँ ठहरे, तथा दूसरे दिन आपको बीमार छोड़ कर रवाना होने लगे तब, वहाँ के श्रावकों ने बहुत कुछ कहा कि महाराज साधुओं का यह धर्म नहीं है कि इस प्रकार बीमार आदमी को अकेला छोड़ कर चला जावे, किन्तु उन्होंने किसी की न मानी और वापिस पाली चले गये। खास कारण तो यह था कि छगनलालजी मेवाड़-मालवे जाना नहीं चाहते थे। खैर, उनके जाने के बाद आप अकेले ही रह गये, अब आँखें दुःखने की हालत में कौन गौचरी पानी लावे, कौन पूजन प्रतिलेखन करे, परन्तु पूर्व संचित कर्मों को तो भुगतना ही पड़ता है । आपने नेत्रों की बीमारी में भी कर्मों से युद्ध करने के लिये चौबिहार तैला (अष्टम) तप कर दिया अतः न रहा आहार पानी लाने