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सं० १९६६ का चतुर्मास जोधपुर में
इस समय आप बीमारी पाकर थोड़े बहुत ठीक हुए तो जोधपुर आये और आपसे विनती की कि मेरा भाव दीक्षा लेनेका है, तथा आपने इसके लिये वचन भी दिया था । अतः कृपाकर दीक्षा देकर मेरा उद्धार करावें । किन्तु उस समय आप फूलचन्दजी की आज्ञा में थे, फूलचन्दजी ने ऐसे बिमार और वृद्ध को दीक्षा देने से इन्कार कर दिया । आपने कहा कि आप फिक्र न करें, यह बीमार अथवा वृद्ध हैं तो इनकी तमाम सेवा मैं करूँगा । मेरा वचन दिया हुआ है, आप दीक्षा देकर इस पवित्र भावना वाले भव्य प्राणी का उद्वार करें । किन्तु फूलचन्दजी का हृदय तनिक भी नहीं पिघला । अतः उनकी आज्ञा को भंग कर हमारे मुनिश्री ने दीक्षा देना उचित नहीं समझा | आपने सलाह दी कि चतुर्मास के ४५ दिन रहे हैं, आप काल में केवलचन्दजी के पास पहुँच जावें । चतुर्मास समाप्त होते ही मैं वहां आकर आपको दीक्षा देकर सेवा करूँगा। उन्होंने ऐसा ही किया। ज्योंही वे कालु पहुँचे, त्यही यहाँ चतुर्मास समाप्त होते ही फूलचन्दजी को आज्ञा ले आप भी कालु गये, और आपने अपने वचन को बहल रखने के लिए प्रतापमलजी को दीक्षा दे ११ दिन तक उनकी सेवा की और धर्म का ज्ञान सुनाया। प्रतिज्ञा पालन इसका ही नाम है । जब प्रताप-मुनि ११ दिनों में ही स्वर्ग वास हो गये तब आप विहार कर वापिस फूलचन्दजी के पास महामन्दिर पहुँच गये । वहाँ से सब साधु विहार कर सालावास पधारे । यहाँ हमारे चरित्रनायक जी के संसार पक्ष का सुसराल था । आप यहाँ चार दिन ठहरे । आपके दो व्याख्यान सार्वजनिक और चार व्याख्यान रात्रि में हुऐ। जिनका खूब ही अच्छा प्रभाव जनता पर पड़ा। वहाँ से