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आदर्श - ज्ञान
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गयवरचन्दः - पूज्य महाराज ! उस समय मेरी भावना दीक्षा लेने की थी; वैराग्य की धुन में मैंने व्रत लेलिया । पश्चात् कर्मों का उदय होने से न तो दीक्षा ले सका और न व्रत ही पालन कर सका। अब इसका कोई रास्ता निकालिए ?
पूज्यजी: - पुनः तपालन के अतिरिक्त इसका दूसरा कोई रास्ता नहीं है ।
साथ ही पूज्यजी ने उपदेश भी दिया कि यह संसार असार है, कुंटुम्ब सब स्वार्थी एक सराय के मेले के सदृश है, 'लक्ष्मी और भोग चंचल हैं। आयुष्य अस्थिर है, यदि मनुष्य इन थोड़े से सुखों के लिए जिन्दगी बर्बाद कर देता है तो वह अनंत काल तक संसार में परिभ्रमण करता है; जिसमें भी व्रत ग्रहण कर उसका भंग करता है उसके लिए तो कहना ही क्या है । कहा भी है कि 'व्रत नहीं ले वह पापी और लेकर भंग करता है वह महापापी होता है; ' तुम अपनी स्त्री और व्यवसाय पर क्या मुग्ध होते हो, मैं खुद दो वर्ष की विवाहिता को त्याग कर अठारह वर्ष की उम्र में दोक्षा ली थी और आज अपना कल्याण हूँ । गयवरचन्दजी:— पूज्यजी के थोड़े से शब्द भी जादूसा काम कर गये, आप के दिल में पुनः दीक्षा की भावना पैदा हो गई और कहा कि पू० महाराज जब मैं पूर्वोक्त चारों खंध पूर्णतया पालन करना चाहूँ तत्र तो मुझे दीक्षा ही लेनी पड़ती है, क्योंकि बिना दीक्षा लिए यह व्रत नहीं पल सकता है ।
पूज्यजी:- दीक्षा लेना कौनसी बड़ी बात है, तुमतो साधारण गृहस्थ हो, पर बड़े २ राजा महाराजा और सेठ साहूकारों