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________________ २६७ लुनकरण जी से वार्तालाप कहा कि आपने यथार्थ फरमाया। अब आपकी श्रद्धा भी यही है ना ? लोढ़ाजी ने जानना चाहा । ___ इस पर मुनिश्री ने उत्तर दिया कि हाँ, यही जिनाज्ञा है, इसके विपरीत मेरी श्रद्दा कैसे हो सकती है ? ___ इसके पश्चात् तो लूनकरणजी और मुनिश्री में दिल खुल कर बातें हुई। लोदाजी ने मुनिश्रा से निवेदन किया कि आप किसी बात की चिंता न करें । यह कार्य वीर पुरुषों का है, और आप स्वयं वीर हैं, आप खूब ही उत्साह से कार्य करें। मैंने अपने इस जीवन में एक लाख रुपया हाथों से कमाया है और उसे व्यय करने का पूर्ण अधिकार भी मुम को स्वाधीन है। अतः आपकी आज्ञानुसार जहाँ जितने द्रव्य की आवश्यकता होगी मैं व्यय करने को तैयार हूँ। यदि दीक्षा का अवसर आ गया तो हम दो-तीन व्यक्ति दीक्षा लेने से भी पीछे नहीं रहेंगे। हम लोग आपके प्रत्येक कार्य को तन, मन, और धन से सहायता करने के लिये तैयार हैं आप तो भगवान महावीर के सिद्धान्त एवं धर्म को डंके की चोट बतलाया करें। लोदाजी के इन शब्दों से मुनिश्री अत्यन्त प्रसन्न हुए और कहा कि आप लोगों का यहो कर्त्तव्य है। धर्म के लिये प्राणोमात्र को सर्वस्व अर्पण कर देना चाहिये । पर इस समय तो मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है । जब जरूरत होगी आपको. याद करूंगा । कल तो मेरा इरादा ओसियां जाने का है ? . ___ लोढ़ानी- और, कल तो आप यहीं व्याख्यान फरमावें । यदि आपको यहाँ ठहरने में कुछ लाभ मालूम हो तो कुछ रोज ठहरने की कृपा करावें वरन विहार तो करना ही है ।
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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