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________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४६६ गये थे; किंतु दूसरे ही दिन फूलचंदजी का एक साधु दवाई कूटने के लिये लोहा का इमामदस्ता लाया था, मुनिश्री ने साधु का हाथ पकड़ ठहराया और पूछा कि साधु को परात तो नहीं कल्पे, किंतु यह धातु का इमामदस्ता तो कल्पता है न ? साधु ने कहा कि हम तो सरचीणा मांग कर लाये हैं । तो क्या साध्वी परात मूल्य लाई थी ? इस प्रकार साधु से माफी मंगवा कर छोड़ा। एक दिन का जिक्र है कि संवेगियों के चस्मा को देख ढूंढिया साधु निंदा करने लगा पर दूसरे ही दिन एक हुँढ़िया साधु व्याख्यान बाचता था उसके चस्मा लगा हुआ था। मूर्तिपूजक श्रावक ने व्याख्यान के विच साधु से प्रश्न किया कि क्या साधु को चस्मा लगाना कल्पता है ? उत्तर में कहा कि यह तो ज्ञान का सोधन है जब सूत्र में पुस्तक रखना भो नहीं कहा है पर ज्ञानवृद्धि के लिये जैसे पुस्तकें रखते हैं वैसे ही चस्मा रखा जाता है मूर्तिपूजक श्रावक ने कहा कि आपके अँध भक्त यह लोग संवेगी साधु की निंदा कर व्यर्थ ही कम-बन्धन करते हैं इनको जरा समझायें कि साधु चस्मा क्यों रखते हैं ? वहाँ बैठे हुये ढूँढिये साधु एवं श्रावकों ने माफी माँग कर अपना पिच्छा छुड़ाया। ७१ मुनिश्री का गोडवाड़ की ओर विहार वर्ष था १९७४ का मारवाड़ में प्लेग की बीमारी का सर्वत्र दौरादौर था; एक गाँव के मनुष्य को दूसरे गांव जाने में रोकटोक की जाती थी, तथापि श्रार महामंदिर से विहार कर सेलावास पधारे; यहां आपने संसारपने में तोरण वाँदा था, अर्थात्
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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