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गुरु शिष्य के वार्तालाप
ये दोनों क्रियाएं तुम करोगे तो लोगों में उपकेशगच्छ को पुनः प्रख्याति होगी और न भी करोगे तो कोई हानि नहीं है, क्योंकि यह क्रियाएं जरूरी नहीं पर उपकारी पुरुषों का स्मरण करना जरूरी है । अतः तुमारी मरजी पर निर्भर है ।
मुनि० – आपकी आज्ञा को मैं शिरोधार्य करता हूँ । मुनिजी के मन में अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि इस कलिकाल में भी ऐसे निःस्वार्थी निस्पृही महात्मा विद्यमान हैं कि जिनको अपने शिष्य बनाने का तनिक भी मोह या ममत्व नहीं है । जो दूसरे साधु एक साधारण व्यक्ति को चेला बनाने में अनेकों प्रपंच करते हैं; पर यहाँ एक पढ़ा-लिखा शिष्य बिना परिश्रम हाथ लग जाने पर भी उसकी परवाह नहीं की जाती, ऐसे महात्मा को कोटिशः वन्दन है |
मुनिजी ने फिर विनय की कि गुरू महाराज मेरे लिए और क्या आज्ञा है ?
योगी० – तुम स्वयं सुयोग्य हो, तुम्हारे लिए दूसरी क्या आज्ञा हो सकती है ? फिर भी एक बात मैं तुमसे कह देता हूँ कि यदि तुम श्रात्म-कल्याण करना चाहते हो या सुखी रहना चाहते हो तो दूसरी खटपट में या शिष्य परिवार बढ़ाने में न पड़ना, क्योंकि ये बातें आत्म-कल्याण में अन्तराय डालने वाली हैं । तुमने सुना होगा कि महाविदेह क्षेत्र में कोई किसी का नुक्सान करता है तो उसको गाली दी जाती है कि जाओ तुम भरतक्षेत्र में बहु परिवारी तथा बहुधनी होना ।
मुनि - यह ग. लो कैसे हुई ? क्योंकि बहुपरिवारी और बहुघनी होना तो प्रत्येक व्यक्ति चाहता ही है ।