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सं० १९६६ का चातुर्मास जोधपुर में गई, तब जाकर रूण पहुँचे । वहाँ गुप चुप एक दुकान में रात्रि व्यतीत की और सुबह जल्दी ही वहाँ से विहार किया। बाद रूण वालों को खबर हुई तो उन्होंने जा कर पूज्यजी को उपालम्भ दिया कि आपके साधु रात्रि में विहार करते हैं।
गयवरचंदजी के उपवास का पारना था, नौका ग्राम में आपतो पारना लाने को गये, और धनराजजी अकेले ही रवाना होकर चले गये। इधर गयवरचंदजी के नेत्रों में वेदना और भी बढ़ गई, फिर भी आपने आकर देखा तो मालूम हुआ कि धनराजजी अकेले ही चले गये। ऐसी अवस्था में आप उसी दिन वहाँ ही रहे, तथा दूसरे दिन विहार किया जब आप दहीकड़े पहुँचे तो धनराजजी अकेले ही जोधपुर पहुँच गये। तीसरे दिन जाते गयवरचंदजी बड़ी मुश्किल से जोधपुर गये । ये लोग केवल मुँह से ही दया २ पुकारते हैं, किन्तु इनके हृदय में दया बहुत कम रहती है। वही धनराज आखिर बराटीया से एक विधवा को लेकर गृहस्थ बन गया, तथा उस पतित अवस्था में ही काल के मुंह में जा पड़ा।
हमारे चरित्र नायकजी ने जोधपुर जाकर फूलचंदी की खूब सेवा की, कई सूत्रों की वचना भी ली; तथा संवत १९६६ का चतुर्मास फूलचंदजी के साथ जोधपुर में किया। फूलचंदजी का शरीर ठीक न होने के कारण व्याख्यान भी हमारे चरित्र नायकजी ही देते थे।
फूलचंदजी के एक शिष्य छगनलालजी एक मास की तपस्या करना चाहते थे। १५ उपवास के तो उन्होंने पच्चक्खाणभी कर लिए थे, किन्तु शहर में सर्वत्र यह अफवाह फैल गई कि प्रदेशी साधुओं