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आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड
४७४ मुसाफिर हैं, तुम्हारे घर के पास बाहर विश्राम लेना चाहते हैं । भीलनी ने कह दिया कि यहाँ नहों, पर यह बाड़ा है इसमें ठहर जाओ, पर प्रातः जल्दी ही चले जाना नहीं तो हमारी और तुम्हारी बड़ी भारी खराबी होगी-भंडारीजी ने आकर कहा, चलो रात्रि में ठहरने की तजबीज कर आया हूँ, बस दोनों गये तो वहाँ एक गायों का बाड़ा था जहाँ इतनी गंदगी थी कि एक मिनट भर भी नहीं ठहर सके, पर क्या करें; मूल्य समय का ही है, रात्रि वहाँ ही निकाली। सुबह उठ कर भीलनी को कहा कि लो, ये चार आने और हमको मार्ग बतला दो भीलनी ने कहा चार आना क्या पर चार रुपैया भी देवो तो मैं नहीं चल सकती हूँ, तुम चढ़ जाओ । इस पहाड़ पर से जाओगे तो आगे का ग्राम तीन कोस है और रास्ते २ जाओगे तो पांच कोस होगा, बाबा ! चले जाओ . नहीं तो मुझे भी ठपका मिलेगा। _____भंडारीजी और मुनिजी वहाँ से रवाना हुए, पाँच कोस के रास्ते पर चले, किंतु कोस भी तो मेवाड़ के थे, जो १५ मील जितने दूर थे, चलते २ करीब ११ बजे गांव आया, पूछने पर मालूम हुआ कि यहाँ ६० घर हैं और वे सब भीलों के हैं, न नजदीक में पानी ही है। वहाँ भूखे प्यासों का जीव घबरा गया था पर चलने के सिवाय और उपाय ही क्या था ? चार कोस अर्थात् १२ मील दूर शांतिनाथजी की पाल ग्राम था, वहां सरावगियों के घर थे, एक रुपये में एक मज़दूर किया, भंडारीजी का वजन उसको दे दिया। वहां से ठीक १२ बजे रवाना हुए, एक तो भूख प्यास, दूसरे १५ मील चल कर आये, तीसरा ऊपर से ताप नीचे से पैरों का जलना एवं गर्मी के मारे प्राण जा रहे थे,