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________________ ८१ चार साधुओं को ताकीद से जयपुर भेजे 1 अन्धकार हो अन्धकार था । आपने कुछ देर तो सूत्रों का स्वाध्याय किया बाद में थोकड़े याद करना शुरु कर दिया | करीब प्रहर रात्रि व्यतीत हुई होगी कि चारों ओर पहाड़ों से ऐसा जौर २ के चकार शब्द सुनाई देने लगे, कि जिसको सुनकर कायर पुरुषों के तो कलेजे फट जाते हैं । उस पहाड़ के गुँजित शब्द को सुनकर श्रापका धैर्य छूट गया और दिल में कई प्रकार के संकरूप विकल्प होने लगे, क्योंकि पहाड़ों में शेर बगैरह कई पशु थे और उनकी ही जोर २ से आवाज हो रही थी । हमारे चरित्र नायकजो अपने विचारों को पलटते हुए सोचने लगे कि मरना तो एक ही वार है; घर बार ही छोड़ दिया तो फिर इस नाशवान शरीर पर इतना ममत्व क्यों ? बस, उसी समय, आपने अपने भंडोपकरण एकत्रित करके एक तरफ रख दिए और सागारी अनशन व्रतं धारण कर लिया कि इस उपसग से बच गया तो संयम व्रत की आराधना करूँगा, और यदि आयुष्य ही समाप्त हो गई है तो मैं सर्वत्र प्रकार से शरीर एवं चार आहार और अठारह पापों का जावत्जीव पञ्चखान करता हूँ । बस, आपके दिल में जो भय था वह चोरों के समान पलायमान हो गया, तथा आप नवकार मंत्र का खूब जाप करने लगे । ज्यों ज्यों रात्रि व्यतीत होती गई, त्यों २ पहाड़ अधिक गुँजित शब्द करता ही गया, किन्तु आप तो मृत्यु का सामना करने के लिये निर्भय बन बैठे थे, आपको भय ही क्या था । गत रात्रि में आपको कुछ निद्रा आई और उसी निद्रा में प्रभात हो आया तब उठकर अनशन पारा प्रतिक्रमण और प्रति लेखन कर वहाँ से विहार कर, चार कोश पर एक ग्राम था, वहीं जाकर आहार जल किया ।
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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