________________
आदर्श - ज्ञान
१७०
ने या मेरे गुरूजी ने ही लिखा है। यह सूत्र तो प्राचीन है और पूज्यजी महाराज ने मुझे पढ़ने के लिए दिया है यदि इस सूत्र में जितने अक्षर हैं, उतना ही मैंने कहा हो तब तो मैं बिल्कुल निर्दोष हूँ । यदि सूत्र के अतिरिक्त एक अक्षर तो क्या, पर एक रत्ती मात्र भी मैंने मेरे मन से न्यूनाधिक कहा हो, तो मैं चतुधि श्री संघ का बड़ा भारी दोषी हूँ तथा संघ इसके लिये मुझे इच्छानुसार दंड देवे | इतना कहकर आपने अपने हाथ का पन्ना कोठारीजी के हाथ में देदिया और कहा कि आप पढ़कर सुनादें । कोठारीजी ने उस पन्ने को रतनलालजी लूनिया को दिया और कहा कि आप इस को पढ़कर सुना दीजिये । लूनिराजी ने उस पन्ने को परषदा के बीच में खड़े होकर नीचे लिखे अनुसार ज्यों का त्यों पढ़कर सुना दिया ।
"तरणं तस्स विजयस्स देवस्स पंचविहार पज्जत्तोए पज्जत्तीभावं गयस्स इमेएयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिते मणोगए संकष्पे समुज्जित्था - किं मे पुव्वं सेयं, किं मे पच्छा सेयं, किं मे पुवि करीणज्जं, किं मे पच्छा करणीज्जं, किं मे पुव्विं वा पच्छा वा हियाए सुहाए रूखमाए, णीस्सेसयाते, अणुगामियत्ताए, भविस्सतीतिकट्टु एवं संपेहेति ततेणं तस्स विजयस्स देवस्स सामापिरि सोवणगा देवा विजयस्त देवस्स इमं एतारूवं अत्थितं चितियं पत्थियं मणोगयं संकष्पं समुप्ययणं जाणित्ता, जेणामेव से विजएदेवे तेणामेव उवा गच्छंति