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केवली के ध्यान का प्रश्न
से समय में ही ज्ञान और तर्क शक्ति खूब बढ़ा ली है, जिसको देख कर मुझे बहुत ही प्रसन्नता होती है। - अजमेर का चतुर्मास समाप्त कर मुनिजी वापिस ब्यावर आये, क्योंकि वहां स्वामो डालचन्दजी स्थिर बास कर बिराजते थे। यहां पधारने से आपको मूर्तिपूजा के विषय में एक नया प्रमाण भी मिला जो कि
पूज्य हुक्मीचन्दजी स्वामी ने अपने हाथों से २२ सूत्र टब्बा सहित लिखे थे, उनमें उपासकदशांग भी एक सूत्र था। पूज्य हुक्मीचन्दजी के पाट पर शिवलालजी और शिवलालजी के पट्टे पर हर्षचन्दजी हुए। उन्होंने पूज्य हुक्मीचन्दजी के हस्तलिखित उपासकदशांग सूत्र के आनंद श्रावक के अधिकार में जहां आनंद अभिग्रह करता है कि मैं अन्यतिर्थियों ने अपनी कर रखी हुई जिनप्रतिमा को नहीं वन्दूंगा। इसमें 'जिन प्रतिमा' शब्द पर 'जो पूज्य हुक्मीचंदजी के हाथों से लिखा था' हर्षचन्दजी स्वामी ने एक कागज की चिपकी लगा दी। बाद में हर्षचन्दजी किसी समय मारवाड़ आये, तब वहां रेखराजजी स्थानकवासी नामक एक बड़े ही विद्वान साधु थे । हर्षचन्दजी की भेंट आप से हुई
और जिन प्रतिमा के विषय में बात चली । हर्षचन्दजी ने अपनी उपासकदशांग वाली बात कही । इस पर स्वामी रेखराजजी ने कहा कि हर्षचन्दजी, आपने अनन्त संसार की वृद्धि की है । क्या पूज्य हुक्मीचन्दजी आपके जितने भी नहीं समझते थे जो उन्होंने अपने हाथों से जिन-प्रतिमा का उल्लेख जैसा था वैसा लिख दिया और आपने उस पर कागज चिपका दिया। वाह, आपकी कितनी समझदारी है ? इस प्रकार उपालम्भ देने से हर्षचन्दजी स्वामी ने