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आदर्श-ज्ञान
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एक रूई का फूवा गीला कर उसे चिपकाये हुए कागज पर रख बड़ी मुश्किल से उस कागज को उतारा, परन्तु थोड़ा २ धब्बा (निशान ) तो रह ही गया। फिर भी, 'जिनप्रतिमा' अक्षर स्पष्ट पढ़ा जा सकता है।
प्रस्तुत उपासकदशांगसूत्र की प्रति पूज्य श्रीलालजी महाराज के पास थी, पर स्वामी, डालचन्दजी ने ब्यावर में स्थिर वास कर लिया, अतः पूज्यजी ने अपने सत्र डालचन्दजी के पास रख दिए थे और उन सूत्रों का हमेशाँ एक बार प्रतिलेखन भी हुआ करता था।
एक दिन उन सूत्रों का प्रतिलेखन करने का सौभाग्य हमारे चरित्रनायकजी को मिला और वही पृष्ठ नजर आया, जिस में स्वामी हर्षचन्दजी ने 'जिन प्रतिमा' शब्द पर कागज लगा कर पुनः हटाया था। यह देख कर उन्होंने डालचन्दजी स्वामी को पूछा । उन्होंने ऊपर का सब हाल जैसा हुआ था वैसा सुना दिया जैसा कि हमने ऊपर लिखा है । हमारे चरित्रनायकजी ने निश्चय कर लिया कि जैन शास्त्रों में मूर्ति का उल्लेख तो स्थान २ पर
आता है, किन्तु केवल मतपक्ष के कारण कई लोग उस्सत्र भाषण 'कर अनंत संसार की वृद्धि करते हैं ।