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________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४६८ आप जाते थे तब पूज्यनी वापिस पधारते थे; अतः रास्ते में आप दोनों की भेंट हो गई। - मुनि०-आपके सुख साता है ? दर्शनों की अभिलाषा तो बहुत दिनों से थी पर इतिफाक हो नहीं हुआ, आज तो मैं मुख्यतः इसी कारण आया हूँ। पज्य०-बहुत अच्छा है, आपके भी तो समाधि है.न ? मुनि०- देव गुरु कृपा से आनन्द है। पूज्यजी०-गयवरचंदजी देखो, “थारे रुचि सो थे कीनी पण अबे निंदा विगता तो मति करो, कारण इण सुं कर्मबन्ध हुवे है"। मुनि०-निंदा करने का तो मेरे त्याग है; न तो मैं किसी की निंदा करता हूँ और न मैं निन्दा करना अच्छा ही समझता हूँ, आपको यह किसने आकर कह दिया है। पज्य०-लोग बातें करते हैं। मुनि०-आपने लोगों की बातों पर विश्वास कर लिया ? पूज्य०-थे पुस्तकां छपाई, लेख छपाया, जिणा में निंदा है । मुनि०-क्या सत्य बात कहने को भी आप निन्दा समझते हा; और लोग तो कहते हैं कि गयवरचंद भ्रष्ट हो गया; साधुपना पला नहीं इससे पूज्यजी ने निकाल दिया। क्या यह लोगों का कहना सत्य है ? यदि सत्य है तो निशीथसूत्र लेकर सामने बैठ जाइये । दोषी कौन ज्यादा है ? पज्य महाराज ! आप तीन पात्रे रखते हो, मैं दो ही रखता हूँ, आप तीन चहरें रखते हैं, मैं दो ही रखता हूँ, आपके छः विगई का त्याग नहीं, तब मैं केवल एक विगई ही काम में लेता हूँ इत्यादि । यदि मैं आपकी समुदाय में
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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