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टूटी मूर्ति शान्तिनाथ को, अशातना अनुचित हुई । मूथाजी के मंदिर बीच में, शान्ति स्नात्र जबर हुई || नहीं था ध्वजा दंड मन्दिरों पै, प्रतिष्ठा दो करवानी थी । गोडीपार्श्व और शान्तिनाथ की, मूर्त्तियाँ पधरानी थी ॥१३७॥ स्थानक वालों ने दीना स्थानक, समवसरण रचना के लिये । वरघोड़ों का ठाठ अजब था, चाँदी सोना का रथ देखा दिये । हुई प्रतिष्ठाएँ धाम धूम से, जैन धर्म उद्योत किया । तेरहपंथी को देकर दीक्षा, क्षमासुन्दर नाम दिया ॥ १३८ ॥ भैरूँबाग थी भूमि देव की, स्कूल नाम से हड़प करे । समाज के शुभचिंतक बन कई, आन्दोलन को आगे धरे ॥ भवितव्यता टारी नहीं टरती, देव द्रव्य का पाप जबर ।
या मन्दिर की भैरूँबाग में, डारी नीव था काम जबर ॥ १३९ ॥ फलोदी संघ के प्रति आग्रह को स्वीकार कर मान लिया । श्राज्ञा हुई गुरुवर की मुझपर, क्षमासुंदर को साथदिया ॥ मंडोवर ओसियाँ करी यात्रा, लोहावट में दिया व्याख्यान ।
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बोर्डिंग करना था । नहीं विसरना था ||
प्रवेश किया फलोदी नगर में, संघ ने किया था बहुमान ॥ १४० ॥ विचार कब से करते थे गुरु, कापरड़े श्रावक वर्ग की थी शिथिलता, फिर भी जोधाणा से आये कापरड़े, नीतिसूरि वहाँ आये थे । माघशुक्ल षष्टि के दिन वहाँ, बोर्डिंगादि खुलवाये थे ॥ १४१ ॥ पीपाड़ में करवानी थी प्रतिष्ठा, कई विघ्न उपस्थित हुए । धराहाथ गुरुवर ने जिस पर विघ्न बदल सब दूर हुए ॥ धूम धाम से हुई प्रतिष्ठा, कलस दंड चढ़वाया था । समवसरण की अद्भुत रचना, देख नगर हरषाया था ॥ १४२ ॥