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आदर्श - ज्ञान-द्वितीय खण्ड
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नही आवेगी, परन्तु हमारे धर्म के मुख्य ४५ आगम इसमें लिखे हुए हैं अतः दर्शनीक है। श्रावकों ने सोचा कि यह कोई अच्छी पुस्तक होगी, तब ही तो मुनिजी ने इसको ले जाने के लिए आग्रह किया है अतः टालमटोल कर आखिर उन्होंने पुस्तक नहीं दी ।
भालासन से २४ मील दांता पड़ता है; रास्ते में सब भीलों केही ग्राम आते हैं। गांव के श्रावकों की आदमी देने जितनी भी स्थिति नहीं थीं; यद्यपि मुनिश्री दो वर्ष गुजरात में घूमे पर किसी एक भी दिन कहीं से भी आदमी नहीं लिया। शाम को जंगल जाते तब रास्ता देख आते और सुबह विहार कर देते; उपाधि आपके पास अधिक थी नहीं फिर आदमी की क्या आवश्यकता थी ?
भालसा से सुबह ही विहार किया तो करीब १ बजे आप दोनों साधु दान्ते पहुँचे, वहां महाजनों के घर थे, पर समय अधिक हो जाने के कारण आहार पानी का योग नहीं मिला; थोड़ी सी छाछ मिली जिसको पीकर तपोवृद्धि की शाम के टाइम में गौचरी पानी कर रात्रि वहीं रहे ।
दूसरे दिन २४ मील कुमारिया का सफर करना था; वहाँ भी मार्ग में भीलों के सित्राय कोई उच्च जाति के घर नहीं थे, इस लिए दूसरे दिन भी २४ मील का विहार करना पड़ा; फिर भी दुर्देव से दोनों मुनि आगे पीछे चलते-चलते पहाड़ों में रास्ता भूल कर पृथक २ हो गये । वहां भयानक पहाड़, निर्जन भूमि, चारों ओर जंगल ही जंगल किसको तो रास्ता पूछे; और कौन रास्ता बतलावें इधर उधर भटक कर बहुत दुःखी हुए । करीब २ बज गई लेकिन ग्राम का कोई पता नहीं; भूख एवं प्यास के मारे