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चन्द्र विजय साधु का मिलाप
भालासन आये वहाँ एक चन्द्रविजय नामक साधु मिल गया, पूछने पर उसने कहा कि मैं रत्तविजयजी महाराज का शिष्य हूँ। आपने विचार किया कि गुरु महाराज के तो कोई शिष्य है ही नहीं, तो फिर यहसाधु रत्नविजयजी का शिष्य कैसे बताता है पुनः पछने पर उसने कहा कि रत्नविजयजी ने तो मुझे शिष्य नहीं बनाया पर मैं रत्नविजयजी महाराज पर श्रद्धा रख उनको अपना गुरू मानता हूँ।
साधु-आप कहाँ पधारोगे ?
मुनि०-मैं कुम्भारियाजी तीर्थ की यात्रा कर आबू होकर मारवाड़ जाऊँगा। ____ साधु-यदि आप कृपा कर मुझे साथ ले चलें तो मेरे यात्रा भी हो जायगी और मारवाड़ के तीर्थों के भी दर्शन कर लूंगा।
' मुनि:- बहुत खुशी की बात है, चलो साथ में । ___ भलासणा में करीब १५ घर श्रावकों के हैं, पहिले घर ज्यादा थे तब वहाँ यति लोग भी रहते थे और उनका एक ज्ञान भंडार भी था । जब मुनिश्री वहां पधारे और उस भंडार को खोल कर देखा तो उसमें प्राचीन हस्त लिखित पुस्तकों से दो पेटिये भरी थीं परन्तु कई वर्ष तक उनको नहीं देखने से कई पुस्तक तो उदाई खा गई और कई के पाने चिप गये; उनमें एक ४५ श्रागमों का हस्तलिखित गुटका था जिसको चारों ओर से उदाई खा गई थीं; बीच में भी सब पन्ने चिपे हुए थे, उसको देख मुनिश्री की आखों से पानी आने लगा कि देखो हमारे परम पूजनीय आगमों की यह दशा ? मुनिश्री ने कहा कि श्रावकों यह पुस्तक हमको दे दो, हमारे पढ़ने में तो यह काम