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________________ ८६ सागरानन्दसूरि का सुरत में पधारना । सागरानन्दसूरिजी बम्बई से भू भ्रमण करते हुए सुरत पधारे और उस दिन श्रापका मुकाम संग्रामपुरा में हुआ, आचार्यविजयधर्म सूरिकी इतनी उदारता एवं वात्सल्यता कि आपने अपने शिष्यविद्याविजयजी और न्याय विजयजी को सागरजी के सामने भेजे, इधर से योगीराजश्री ने भी हमारे चरित्र नायकजी को सागरजी की सेवा में भेजे, सब साधुओं ने वन्दन व्यवहार किया, बाद सागरजी ने पूछा, आपका नाम क्या है ? पनिश्री ने कहा कि मेरा नाम ज्ञानसुन्दर है, सागरजी समझ गये कि प्रश्न करने वाला ज्ञानसुन्दर साधु यही है । सुरत की जनता ने सागरजी का अच्छा सत्कार एवं संमेला किया; जब श्राप नगर में आ रहे थे तो आचार्य विजयधर्मसूरिजी भी सागरजी के सामने आए, पर सागरजी ने अपने घमन्ड में सूरिजी का श्रादर सत्कार भी नहीं किया, इस पर समझदारों ने समझ लिया कि कहाँ तो विजयधर्मसूरि की उदारता कि सागरजी के स्वागत के लिये आप स्वयं चलाकर आए, और कहाँ सागरजी की संकुचितता कि इन्होंने थोड़ा भी आदर नहीं किया। विजयधर्मसूरि थोड़ी देर तो वरघोड़ा के साथ चले, बाद मौका पाकर गोपीपुरे चले गए, और सागरजी बड़ेचोटा के उपाश्रय जहाँ योगीराज और मुनिश्री ठहरे थे वहाँ जाकर एक तरफ कमरे में उतर गए; किंतु सुरत की जनता के दिल में जैसा उत्साह और उमंग वनयधर्मसूरिजी के आगमन के समय था वैसा अब नहीं रहा। जब सागरजी ने आहार पानी से निवृत्ति पाई तो मुनिश्री श्रा
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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