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गुजरात के साधुओं की वाटाबंदी
संकुचितता बतलाकर उदारता का उपदेश दिया, फिर श्रावक के आग्रह से यथा खप आधार लिया क्योंकि जब तक आप शत्रुब्जय की यात्रा न कर पावे तब तक कई विगइ का त्याग कर रखा था अतः मिष्ठान्न का तो आपके त्याग ही था और कहा बहिन ! इस प्रकार कहना श्रावक का कर्तव्य नहीं है। कोई भी गच्छ का साधु क्यों न हो, तुम गृहस्थों का घर सब के लिये खुला है। __दूसरे देशों के बजाय गुजरात में बाड़ बन्धी अधिक है; एक दूसरे के उपाश्रय में जाकर व्याख्यान नहीं सुनते; एक माने हुए साधु के अतरिक्त कोई साधु आवे तो उन भावों से आहार पानी नहीं देते हैं. इसका कारण श्रावकों का अपराध नहीं है, अपितु मुनियों का अधिक ठहरना ही है और अधिक परिचय से औरतें उनके वाडा में बंध जाती हैं और वे इतनी विश्वास अंध बन जाती हैं कि अपने माने हुए साधु के अतिरिक्त अन्य कोई उनको साधु ही मालूम नहीं होता है, अस्तु ।
तीवरी वालों की ओर से जो 'सिद्ध प्रतिमा मुक्तावली भाव' नगर विद्याविजय प्रेस में छपती थी, उसकी १००० प्रतिएं छप कर तैयार हो गई जिसका प्रचार भी सर्वत्र होने लगा और कई लोग अपना हट एवं भ्रम को छोड पुनः मूर्ति के उपासक बन गये । अचलदासजी बागरेचा सेलावास वाले ने मुनिश्री को अर्ज करी कि बीसलपुर का पत्र आया है, हमारे राजकुंवरबाई का देहान्त हो गया लिखा है । मुनिश्री ने कहा कि नाशमान शरीर का यही धर्म है और काल की कुटिल गति का यह स्वभाव है, दुनियां में कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं है इत्यादि ।
आप श्रीमान ने अपने मन में इस अनित्य संसार का स्वरूप