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रतलाम में दो मास की स्थिरता
एक सेविका रखली, और आप दम्पति वहां आनन्द में ठहर गये। पूज्यजी एक अत्यन्त ही चतुर खिलाड़ी थे, ऊपर से तो ज्ञानाभ्यास करवाने की कौशिश करते थे पर अन्दर से इस प्रकार बैराग्य के बाग लगाया करते थे कि सुन ने वालों का दिल पिघले बिना नहीं रहता था, यही कारण था कि गयवरचंदजी ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि पूज्य महाराज मैंने दीक्षा लेने का निश्च कर लिया है । बस, पूज्यजी महाराज के हाथ तो एक सोने की चिड़िया लग गई, अब आप कब चुपचाप बैठने वाले थे रात्रि तथा दिन में जितना अवकाश मिलता ज्ञानाभ्यास करवाने में बिताने लगे। इधर गयवरचंदजी की बुद्धि इतनी प्रखर थी कि दूसरा साधु एक मास में जितना ज्ञान कण्ठस्थ न कर सके उतना आप एक ही दिन में कर लेते थे, पूज्यजी ने भी अपने दिल में यह निश्चय कर लिया कि यदि गयवरचन्दजी ने दीक्षा लेली तो यह हमारी पूज्य पदवी का अधिकारी बन जैन धर्म का अवश्य उद्योत करेगा ! करीब दो मास में हमारे चरित्र नायकजी ने ७५ थोकड़ा और देशवैकालिक सूत्र कण्ठस्थ करलिए, इतना ही क्यों पर आपने तो अपनी धर्मपत्नी राजकुँवर को भी सामायिक प्रतिक्रमण कण्ठस्थ करवा दिए, यहाँ तक तो सब आनन्द में ही थे ।
एक समय का जिक्र है कि रतलाम में हगामजी आरजियां
से चौमासा किया था, राजकुँवर सामायिक प्रतिक्रमण करने को वहीं जाया करती थी । वे आय एक वैरागिन को साथ लेकर पूज्यजी महाराज के पास आई, उस समय हमारे चरित्र नायकजी पूज्यजी की सेवा में उपस्थित थे । पूज्यजी ने उस वैरागिन को उपदेश देते हुए कहा कि बहिन, तू तो विधवा है अब दीक्षा