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संघ चतुर्विध अर्ज ग्रह से, चतुर्मास वहाँ ठाया था । व्याख्यान में श्रीसूत्र भगवती, जिनवाणी रंग बसाया था ॥ कण्ठस्थ ज्ञान दिया बहुतों को, कई अन्य लाभ उठाया था । जैन-जैनेत्तर भेद भूल कर धर्म का झंडा फहराया था ॥ ८३ ॥ शरीर का था कारण आपके, संघ की श्राग्रह भारी थी । चतुर्मास पुनःकिया दूसरा, धर्म प्रीत एक तारी थी | कालिक और उत्कालिक सूत्र, दो दफे वाँचना होती थी ।
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अहोभाग्य थे उन सज्जनों के, सुन ज्ञान जगाई ज्योति थी ॥ ८४ ॥ समवसरण की रचना अपूर्व, जिसका दृश्य सवाया था । जैन - जैनेत्तर भक्ति करके, आनन्द खूब मनाया था । भूल गये समुदायक भेदों को, प्रेम अपूर्व छाया था । साथ बैठ कर भोजन सबने, वात्सल्य भाव दिखाया था ||८५|| धर्मज्ञों को धर्म करनी में, खुशी बहुत सी श्राती थी । फिर भी थे कई विघ्न सन्तोषी, उनसे देखी नहीं जाती थी । जिसके पास होती है वस्तु, दिखलावे कौन नवाई थी ।
फिर भी विजय धर्म की हो, इसमें क्या अधिकाई थी ॥८६॥ राधाबाई एक थी श्राविका, उसने संघ का निश्चय किया । जैसलमेर की करनी यात्रा, सहयोग गुरुवर ने दिया || आनंद से संघ कर आये यात्रा, सघन विघ्न सब दूर भये । उस समय की गजल देखकर, हाल सब ही जाने गये ||८७ || पकड़ा जौर कलि कुदरत ने, तीजा चौमासा' ठाय दिया । बढ़ता गया उत्साह धर्म का, विजय डंका बजवाय दिया । सेंतीस तो वहाँ आगम बांचे, पौन लाख थीं पुस्तकें खरी । फला फूल है झाड़ धर्म का, आभार आजलों मन में धरी ॥८८॥