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भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड
२८० मुनि०-"यह बात तो तेरहपन्थी लोग भी कह सकते हैं कि क्या दया दान में पाप बतलाने वाले इतने बड़े समुदाय में कोई, भी आत्मार्थी नहीं है ? इसका आप क्या उत्तर देंगे?"
श्रावक-"वे तो प्रत्यक्ष उत्सूत्र बोलते हैं, सूत्रों में जगह २ भगवान ने अपने श्रामुख से दया दान में धर्म एवं पुण्य होना बतलाया है । अतः तेरह पन्थी समुदाय में चाहे त्यागी, वैरागी, तपस्वी एवं विद्वान् हों, पर वे दया दान में पाप बतला कर उत्सूत्र प्ररूपते हैं, अतः हम उनको अनन्त संसारी समझते हैं।" ..
मुनि-"इसी प्रकार आप अपने को भी समझ लीजिए । क्योंकि सूत्रों में कई स्थान पर मूर्ति पूजा का उल्लेख है, उसको न मानना और अपनी असत्य बात को सत्य बनाने के लिए कुर्तक करना तथा मुँहपत्ती में होरे का कहों पर उल्लेख न होने पर भी डोराडाल कर मुंहपत्ती को दिनभर मुँहपर बांधे रखना और उसकी स्थापना करना क्या यह उत्सूत्र नहीं है ? भला अष पूज्यजी महाराज से यह तो कहला दें कि ३२ सूत्रों में मूर्ति पूजा का अधिकार नहीं है, और मुंहपत्ती में डोरा डाल रात दिन मुंह पर बँधी रखने का अधिकार है ?"
श्रावक-"यह बात पूज्यजी महाराज नहीं कहते । हाँ, उका यह कहना तो जरूर है कि मन्दिर मार्गियों ने मन्दिरों में धूमधाम ज्यादा बढ़ा दी, इसलिए हमारे पूर्वजों ने बिलकुल मन्दिर को छोड़ दिया है। दूसरे जब मन्दिरमार्गी मुंहपत्ती हाथ में रखते हुए भी खुले मुंह बोलने लग गये, तो अपने समुदाय वालों ने मुंहपत्ती में डोरा डाल मुँह पर बांधना शुरू कर दिया।"
मुनि-मैं आपसे यह पूछता हूँ कि जब सिर पर बाल बढ़