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________________ १५७ सं० १९७० गंगापुर में चतुर्मास को जान गये थे, फिर व्याकरण पढ़ाना तो जान बूझकर साधु को खोना है, यही कारण था कि पूज्यजी ने मनाई करवा दी ऐसी हालत में बेचारे श्रावक क्या करें । श्रातिर पंडितजी का श्राना बन्द कर देना पड़ा । किन्तु एक कोठारीजी ने खानगी तौर पर अपनी ओर से तनख्वाह देकर पंडितजी को ऐसे समय भेजने का प्रबन्ध किया कि जिससे किसी को ज्यादा मालूम न हो सके । अतः मुनिजी का थोड़ा बहुत अभ्यास चलता रहा । किन्तु फिर अगुवे श्रावकों को मालूम पड़ने से पंडितजी को बिल्कुल बंद कर देना पड़ा । I जिस मकान में श्राप चतुर्मास कर ठहरे थे, उसी के पीछे एक जैन मंदिर और उपाश्रय था । उपाश्रय में एक यतिजी का करीब १६ वर्ष का चेला रहता था । ४०५ घर मन्दिर मागियों के भी थे । वे लोग मन्दिर की देख-रेख किया करते थे । उपाश्रय में एक जूना ज्ञान भंडार भी था, जिसमें कई प्राचीन सूत्रों की प्रतिएं भी थीं । मुनिश्री को तो इस बात का पहिले से ही शौक था । आपने जाकर उस ज्ञान भंडार को खुलवा कर सूत्र देखे तो उनमें एक श्रीश्राचाररांगसूत्र की नियुक्ति मिली। उसके अंत में लिखा था कि यह वि० सं० १४०८ माघ शुक्लका ७ को पं० भावहर्ष ने लिखी है उसमें स्पष्ट अक्षरों में यह लिखा हुआ था कि शत्रुं जय गिरनार, अष्टापदादि तीथों की यात्रा करने से दर्शन निर्मल होता है । दूसरा उपासकदशांग सूत्र देखा जिसमें श्रानन्द के अलावा में भी स्पष्ट लिखा था कि अन्य तीर्थों द्वारा ग्रहण की हुई जिन - प्रतिमा को वन्दन करना श्रानन्द को नहीं कल्पता है। तं सरे भगवती सूत्र में भी विद्याचारण मुनियों के अधिकार में 'चैत्य'
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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