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३६ गुरु-शिष्य पूर्ण स्नेह के साथ अलग होते हैं
जोधपुर स्थानकवासी समुदाय के लिए एक ऐसा क्षेत्र है कि जहां पांच, छः तो समुदाय हैं और उनमें भी मेल-मिलाप बहुत कम है । तथा वहाँ पर देशी प्रदेशियों के तो परस्पर हमेशा ही वैमनस्य चलता रहता है । हमारे चरित्रनायकजी शुरू से ही देशी साधु के उपासक थे। बाद में आपने दीक्षा प्रदेशी साधुओं के पास ले ली; यह बात देशी साधुओं को खटकती तो थी ही, फिर आपके मूर्तिपूजा की श्रद्धा का डंका बजने लगा । ऐसी हालत में देशी समुदाय वाले भी अपनी करनी में कब चूकने वाले थे ! उन्होंने इस बात को खूब जोरों से फैला दी कि देशी साधुओं ने न तो कभी मन्दिर-मूर्ति का खण्डन किया है और न मण्डन ही करते हैं; किन्तु परदेशी साधु, जो पहिले मंदिर मूर्ति का खण्डन करते थे, वे ही श्राज मण्डन करने लगे हैं । . उदाहरणार्थ, कर्मचंदजी, कनकमलजी, शोभालालजी और गयवरचन्दजी के नाम बतलाये जाते थे ।
मोड़ीरामजी महाराज ब्यावर से विहार कर क्रमशः जोधपुर पधार कर संघीजी के नोहरे में ठहरे । श्रावकों के आग्रह से व्याख्यान गयवरचन्दजी बांचते थे । गुरू महाराज भी व्याख्यान में विराजते थे, जिससे कि गयवरचन्दजी किसी प्रकार को प्रतिकूल प्ररूपना न करें । एक दिन बड़ी तिथी का व्याख्यान था, परिषदा का जमघट भी जोरदार था । व्याख्यान के बीच में ही एक श्रावक ने उठ कर प्रश्न किया: -- महाराज ! यदि