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________________ आदर्श-ज्ञान १६४ तेरह-हमारे पूज्यजी महाराज की आज्ञा है कि श्रीलालजी के साधुओं के साथ चर्चा नहीं करना । ___ मुनि०-इसका क्या कारण है ? शायद यह तो नहीं कि उदयपुर में तेरहपन्थी साधु पूज्य श्रीलालजी के सामने शास्त्रार्थ में बुरी तरह परास्त हुए थे। मुनिश्री ने उपस्थित जैन जैनेत्तर जनता के सामने दया और दान के विषय में स्वमत और परमत के शास्त्रों के पुष्कल प्रमाण देकर यह सिद्ध कर बतलाया कि वर्तमान समय में जितने मत, पन्थ एवं धर्म हैं, उन सबमें सिवाय तेरहपन्थियों के मरते जीव को बचाने एवं अनाथ जीव को दान देने में कोई भी पाप नहीं बतलाते हैं । दुःस्त्र और महादुःख है कि तेरहपन्थी लोग भगवान महावीर के अनुयायी कहलाते हुए भी इस प्रकार मिथ्या-प्ररूपना कर इस पवित्र जैन धर्म पर कलंक लगा रहे हैं, और बेचारे अनजान लोग ऐसे निकृष्ट मत को मानकर मिथ्यात्व की वृद्धि कर रहे हैं । किन्तु मैं आज आम तौर से सूचित करता हूँ कि दया दान में पाप बतलाने वालों को 'जैन' मानने की भूल कोई भी न करे, इत्यादि कहकर सभा विसर्जित की गई। तेरहपन्थी लोग भी शर्मिन्दा होकर नीचा सिर करके चले गये; फिर चतुर्मास में तेरहपन्थियों ने चूँ तक भी नहीं किया। इतना ही क्यों, वे तो आपका नाम ही सुनकर घबराते थे । पूर्वोक्त प्रश्नोत्तर से कई पन्थी लोगों को शंका पैदा होगई थी। उन्होंने चतुर्मास के अन्त में तेरहपन्थियों की श्रद्धा को तिलाञ्जलि देकर दया धर्म को अङ्गीकार कर लिया ।। चतुर्मास में अनेकों ग्रामों के लोग लापके दर्शनार्थ आये थे।
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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