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मेझर नामा में वृद्धि
साथ में हो गये अर्थात् सब जने साथ में विहार करने का निश्चय कर लिया ।
शत्रुञ्जय पर आप २५ दिन ठहरे, वहाँ के साधु साध्वियों का आचार व्यवहार देख कर तो आप यही सोचने लगे कि यह बिचारे बाल जीव यात्रा की ओट लेकर उल्टे कर्म बन्धन कर रहे हैं । हाँ, इनमें कई अच्छे साधु भी होंगे, पर प्रायः ऐसे साधु अधिक थे कि यदि कोई दातार श्रावक वहां आ निकलता और मिष्टान्नादि रसोई बनाई हो तो एक के ऊपर एक साधु साध्वी उन पर इस प्रकार का श्राक्रमण करते थे कि उन गृहस्थों को अपने लिये फिर दूसरी बार रसोई बनानी पड़ती थी; तथा कई वेशधारी तो ऐसे भी थे कि गोचरी की लाई हुई रोटियों तक को बेच कर पैसा जमा कर लेते थे — और कपड़ा, पुस्तक वगैरः के लिये रुपया,
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आठ आना, और चार चार श्राने मांगने में भी नहीं चूकते थे । जिसमें साध्वियों की हालत तो इससे भी खराब थी; जिस समय
चौकी (मोटलों) पर बैठ कर कपड़ा धोती थीं तो उनको क. पड़ों तक की भी सुधि नहीं रहती थी । इस प्रकार के हाल आपने संक्षिप्त से मेरनामा में दर्ज भी कर दिए थे ।
मुनिश्री ने गुजराती साधु साध्वियों के आचरण और विशेषतः पालीताणा का हाल देख कर यही विचार किया कि ढूँढिये लोग यों तो जिन शासन से प्रतिकूल हैं, इनकी श्रद्धा और आचरणा लोक निंदनीय है, पर इनके अन्दर से आए हुए साधुओं ने शासन का उद्धार अवश्य किया है । यदि ढूँढ़ियों में से स्वामि बुटेरायजी, आत्मारामजी, मूलचन्दजी, वृद्धिचंदजी जैसे उद्धारक नहीं निकलते, अर्थात वे संवेगी नहीं बनते तो, न जाने इन संवे
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