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जब देखा सिद्धाचल नजरे, रोम रोम हर्षाया था । . धर्मशाला की देख दुकानें, दुःख भी कम नहीं आया था।। खड़े होकर सड़क बीच में, व्याख्यान भवनिशरणी थी। मरुधरों के दुःख हरने को, अलग व्यवस्था करनी थी ॥१॥
फिर तो कहना किस बात का, मुनीम वगैरह आये थे। प्रबंध हुआ मिन्टों में सब ही, झुक झुक शीश नमाये थे।। कोटावालों को धर्मशाला में गुरुवर ने विश्राम लिया ।
खरतर गच्छ के थे कई साधु,हाल उन्होंका सुन लिया ॥७२॥ पञ्चवीस दिन तक करी यात्रा, वहां से आये राजनगर। श्राग्रह था वहां चतुर्मास का, जाना था मरुधर को मगर । बुला लिये फिर गुरुराज ने, सूरत श्राये करके बिहार । धर्मसूरीश्वर के कर दर्शन, सागरजी थे चर्चा कार ॥७३॥
गुरु साथ में पाये जघड़िये,ओसियां का पत्र पाया था। ' बोर्डिग का हाल इति श्री है, सुनकर रंज सवाया था ।
आज्ञा दी गुरुवर तुम जाओ,विद्यालय का करो सुधार।
छूटे नहीं सेवा गुरुवर की,फिर भी आज्ञा ली सिर धार ।।७४॥ गुजरात के साधु साध्वियों, आचार विचार में ढीले थे। पक्षपाती थे गृहस्थ वहाँ के जैसे, गोवर के खीले थे। अन्ध श्रद्धा अरु निर्नायकता, स्वच्छन्दता सब छाई थी। देखा नहीं गया गुरुवर से, फिर ऐसी दिल में आई थी।।७।।
कहूँ किसी से कौन सुनता है, शासन झांका बनाताहै। अगर कोई कहे किसी को, वह नास्तिक पद पाता है । अनुकरण कर उपाध्याय का,लिपि बद्ध सब करना हाल। महाविदेह में दुकान बड़ी है,यहां की लेगा सार संभाल ।।७।।