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________________ आदर्श - ज्ञान ६० के सरदार, एक शिष्य का लोभ के कारण किस प्रकार प्रपंच करके गृहस्थों के घरों को बर्बाद कर बेचारे भद्रिक जीवों को अपने जाल में फंसा कर उसकी किस प्रकार विडम्बना करवाते हैं, जिसका यह एक उदाहरण है । आप आगे के प्रकरण पढ़ेंगे तो ठीक ठीक मालूम हो जायगा कि ऐसे साधु-समाज के रक्षक हैं या भक्षक ? जनता का कल्याण करने वाले हैं या रक्त चूँसने वाले हैं? यदि कोई भद्रिक यह शंका करे कि इस कार्य में उन पूज्य पुरुषों का क्या स्वार्थ था, वे तो संसारी जीवों के कल्याणार्थ ही करते हैं ? तो उसके उत्तर में उन्हें ज्ञात हो कि संसारी जीवों का कल्याण होना या न होना, तो उनके कर्मों के क्षयोपशम के धीन है, पर साधु इस प्रकार धोखेबाजी कर अपनी आत्मा का कल्याण तो जरूर ही करते हैं अर्थात् वह अपने संयम व्रत को तिलाञ्जलि दे चुका है। और इस प्रकार के प्रपंच जाल में दूसरों के कल्याण की भावना नहीं, पर शिष्य-विमोह अवश्य कहा जा सकता है, जिसको आप अगले प्रकरण में पढ़ सकेंगे । ~TING THE
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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