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________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५९२ बीमार हुआ था कि मुझे धरती पर भी उतार लिया था और मेरे जीने की कोई आशा नहीं थी; पर देव गुरु की कृपा से मैं उस मृत्यु से बच गया । अब मैं जानता हूँ कि संसार असार है, जो सुकृत किया जाता है वही साथ में चलता है, यदि मेरा उस समय देहान्त हो जाता तो यह सब करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति यहाँ रह जाती, अतः अब मेरी इच्छा सम्पत्ति बढ़ाने क' तो नहीं है, पर मेरे पास में है उसमें से याद कोई मांगे तो मेरी इच्छा देने की नहीं होती है, इतना ही नहीं पर कभी लिहाज से दे भी दिया जाय तो मेरा जीव कट जाता है। मुनिश्री ने कहा, सेठ साहिब आपने ठीक कहा, अब मुझे आपको उपदेश देने का परिश्रम करने की आवश्यकता ही नहीं है कि श्राप कुछ सुकृत करें । सेठजी १५ दिन ठहरे पर एक स्नात्र पूजा तक भी नहीं पढ़ाई, हाँ प्रभु पूजा सामायिक वगैरह अवश्य करते थे । जब सेठजी के बम्बई का तार आया तो आप बम्बई चले गये, पर आपकी धर्म पत्नी की तबियत पूर्ण रूप से नहीं सुधरी थी, अतः वे और उनके भृत्यादि जघड़िये हो रहे। मुनिश्री ने सेठानीजी को उपदेश दिया, अतः उन्होंने अपने हाथखर्चे में से अच्छी रकम धर्मशाला के लिए प्रदान की तथा बड़ी पूजा पढ़ाई, वात्सल्य किया, और मुनिश्री की अच्छी भक्ति करी। तथा उनको मुनिश्री पर इतनी श्रद्धा हो गई कि उसने प्रार्थना की कि आप बम्बई पधारो, मैं मार्ग का सब प्रबन्ध कर दूंगी और बम्बई पधारने पर भी श्राप की सेवा करूंगी और जो कुछ भी द्रव्यादि का कार्य होगा वह भी सब मैं मेरी ओर से करूंगी। मुनिश्री ने कहा, क्षेत्र स्पर्शना, पर यह कार्य हमारे गुरु महाराज के आधीन है। सेठानीजी फिर
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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