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________________ आदर्श-ज्ञान १९८ सेठजी-वे तो जान बूझ कर जल-पुष्पादि चढ़ाते हैं, जिसमें कि हिंसा होती है। मुनिजी-तब गुरूवन्दन करने में जो वायु काया के जीवों की हिंसा होती है; यह क्या जान बूझ कर नहीं है ? सेठजी-यह तो विधि है। मुनिजी-मूर्ति-पूजा करना भी तो विधि ही है ? सेठजी-मूर्तिपूजा में यदि जल पुष्पादि नहीं चढ़ाये जावे तभी भाव पूजा हो सकती है। मुनिजी-गुरु महाराज को भी उठ बैठ के वन्दन नहीं करके भाव से ही वन्दन करे तो भो हो सकती है, तब उठ बैठ कर वन्दन द्वारा असंख्य जीवों की हिंसा क्यों की जाती है ? - सेठजी-ऐसा करने से शासन में विनय धर्म की नास्ति होती है। मुनिजी-बस, पूजा न करने से भी श्रावक का विनय-गुण नाश हो जाता है। सेठजो-महाराज श्राप थोड़े से ही समय में इतनी तर्क वितर्क कहां से पढ़ आये। मुनिजी-यह श्राप जैसे श्रावकों का ही उपकार है कि जो इस प्रकार तर्क करके हमारे में समाधान करने की शक्ति पैदा करते हैं । मैं मूर्ति पूजक नहीं पर स्थानकवासी हुँ किन्तु प्रतिवादी रूप से ही मैं मेरी युक्ति को काम में लेता हूँ। सेठजी-महाराज प्रश्न व्याकरण सूत्र में भी ऐसा पाठ आता है कि मन्दिर मर्ति के लिए पृथ्वी कायादि जीवों की हिंसा करने वाला मन्द बुद्धि और दक्षिण की नरक में जाने वाला कहा है ।
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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