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________________ आदर्श-ज्ञान १४६ गयवर०- - पूज्यजी महाराज, आहार पानी अलग कर देने का तो मुझे रत्ती मात्र भी दुःख नहीं है, क्योंकि सब साधु आहार पानी गृहस्थों के यहाँ से ही लाते हैं । इसी प्रकार मैं भी ले आऊँगा । किन्तु मेरा क्या कसूर है वह कृपा कर बतलावें । पूज्यजी - क्या तुम नहीं जानते हो कि तुम मूर्ति की प्ररूपणा करते हो ? गयवर० - मूर्ति की प्ररूपणा का क्या अर्थ है ? मैं यही 'जानना चाहता हूँ | पूज्यजी - मूर्तिपूजा में धर्म बतलाना । गयवर०- -मूर्ति-पूजा में धर्म है या नहीं, इसके लिए तो मैं अभी कुछ नहीं कह सकता हूँ, किन्तु मूात-पूजा का पाठ तो सूत्रों में स्थान २ पर आता है। पूज्यजी - यह बात तुमको किसने कही थी ? गयवर०- • आपने ही मुझे सूत्रों की वाचना देते समय कही थी । पूज्यजी - तुम कुछ सँभाल के बोलो। क्या मैंने यह कहा था कि सूत्रों में मूर्ति-पूजा का उल्लेख है ? गयवर०—जी हाँ, यदि आपने नहीं कहा हो, तो सूत्रतो श्राज मौजूद हैं न । अब भी देख लीजिए। दूसरे, नागौर में सेठजी और आपके जो वार्तालाप हुआ, वह तो आपको याद ही होगा? ( दोनों ओर से मामला खूब गर्म हो गया । हमारे चरित्र नायकजी सूत्रों पर अड़ गये तो पूज्यजी महाराज अपनी सत्ता पर दृढ़ हुये थे )
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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