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२४-संवत् १६६६ का बीकानेर चातुर्मास
हमारे चरित्रनायकजी को ज्ञान पढ़ने का शुरु से ही खूब शौक था, और ज्ञान ग्रहण करने की युक्ति भी आपको बहुत अच्छी याद थी। आप बखूबी जानते थे कि ज्ञान प्राप्ति में सब से पहिले विनय, भक्ति और व्यावच्च की आवश्यकता है । ये सब गुण हमारे चरित्रनायकजी में विद्यमान थे। इतना ही क्यों, पर आप इन गुणों को हर समय काम में भी लिया करते थे, यही कारण है कि अपनी समुदाय के करीब १०० साधुओं में आपका आसन दूसरे नम्बर पर था।
शोभालालजी एक ऐसी प्रकृति के साधु थे कि आप पूज्यजी की समुदाय में ज्ञानाभ्यास के लिए प्रथम नम्बर के होने पर भी आपकी तेज प्रकृति के कारण न तो काई साधु आपके पास ठहर सकता था और न किसी ने आपके पास से थोड़ासा भी ज्ञान प्राप्त किया था। आपकी प्रकृति में यह विशेषता थी कि आप न तो जरासा भी प्रमाद करते थे और न अपना काम दूसरों से करवाने की आशा ही रखते थे। यहां लाग लपेट का भी काम नहीं था, जो होता वह साफ और सन्मुख ही कह देते थे । आपको कोई भी बोल चाल या प्रश्न एक बार पूंछ ले, फिर दूसरी, बार पूंछने की आवश्यक्ता नहीं, क्यों कि वे कह देते थे कि भाई मैं केवल दूसरों के लिये नहीं हूँ, किन्तु मैं स्वकीय कार्य भी करना चाहता हूँ । यही कारण है कि पूज्यजी को समुदाय में