________________
४१ सं० १९७२ का चतुर्मास तीवरी में
तीवरी के देशी स्थानकवासियों और मूर्तिपूजकों ने मुनिजी का खूब स्वागत किया, और श्री दादाजी के उपाश्रय में आपको ठहराया । दूसरे दिन व्याख्यान हुआ। करीब १७० घर वाले व्याख्यान में आये, जिससे उपाश्रय में श्रोताओं को बैठने तक को जगह नहीं मिल सकी। प्रारम्भ में आपने श्री सुखविपाक सूत्र शुरू किया और बाद में श्री भगवतीजी सूत्र व्याख्यान में और भावनाधिकार में चंदराजा का रास बांचने का निर्णय किया। - एक तो श्रीभगवतीजी सूत्रका प्रभाव ही ऐसा था कि जिनका नाम सुनने से ही जनता की अभिरुचि बढ़ जाती थी दूसरे मुनिश्री ने श्री भगवती सूत्र के प्रायः सब थोकड़े कण्ठस्थ कर रखे थे। इसके अलावा आपकी व्याख्यान बांचने की शैली ही ऐसी थी कि क्या जैन और जैनेतर, जिसने आपका एक दिन व्याख्यान सुन लिया वह दूसरी बार सुनने का प्रयत्न अवश्य करता था अतः ऐसी सुन्दर थी आपकी व्याख्यान देने की शैली। ___ तात्पर्य यह है कि व्याख्यान या भावनाधिकार में तथा दृष्टान्त वगैरह में प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी भांति एक बार तो मूर्ति का विषय आ ही जाता था। वह भी अप्रामाणिक नहीं किंतु ३२ सूत्रों के मूल पाठ के प्रमाण से सिद्ध किया जाता था। सुनने वाले मूर्तिपूजकों के अतिरिक्त देशी समुदाय वाले भी थे
और उनके भाव मूर्ति के प्रति विशेष रूप से झुकने लगे। अत. एवं मुनिजी का कथन सबको अधिकाधिक रुचता गया।