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________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड २७२ पधारे, सबसे पहिले आपने भगवान महावीर के मन्दिर में जाकर वीतराग की शान्त मुद्रा के दर्शन किए। आपको उस समय इतना हर्ष हुआ कि हाथ में ओघा लेकर नाचने लग गये और कहने लगे कि हे प्रभो ! मेरे किस जन्म के अंतराय कर्मों का उदय हुआ था कि मैं आपके दर्शनों से वंचित रहा ? दर्शन करने के बाद परम योगिराज मुनिश्री रत्नविजयजी महाराज से मिले । योगिराज को पहिले से ही जोधपुर से सूचना मिल हुई थी तथा आप इतने मिलनसार थे कि आपके पास आते ही मुनिश्री का बड़ा आदर सत्कार किया। ___ रात्रि में दोनों मुनिवरों में ठीक ज्ञान चर्चा हुई, जिसमें मुनिश्री के शास्त्रों का अभ्यासक को सुन कर हमारे योगीराज बहुत ही प्रसन्न हुए । जब मुनिश्री ने दीक्षा की बात निकालो तो योगिराज ने कहा कि आप अभी नये हैं, इतनी जल्दी क्यों करते हो इस संवेगी समुदाय में भी कई गच्छ हैं और थोड़ी २ बातों में वे एक दूसरे को मिथ्यात्वी कहते हैं । अतः आप पहिले वर्तमान में जितने गच्छ विद्यमान हैं, उनका परिचय करलो फिर जिसकी ओर आपका दिल लग जाय वहाँ दीक्षा ले लेना । यदि आप बिना सोचे उतावले होकर काम करेंगे तो अन्त में आपको पछताना पड़ेगा। ढूंढिये तो विचारे एक छोटासा तालाब है पर यहां तो बड़ा समुद्र है, अतएव मेरी सलाह है कि आप जो कुछ करना चाहें वह धैर्य पूर्वक दीर्घ दृष्टि से सोच समझ कर ही करें। मैं इस बात का अनुभव कर पक्का भौमिया बन चूका हूँ, इसलिए आपको यह सलाह दे रहा हूँ।" इस प्रकार की निस्पृह और नेक सलाह सुन कर हमारे चरित्र
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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