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३८ अोसियाँ तीर्थ पर योगिराज का मिलाप
तीवरी के देशी स्थानकवासियों की विनती को स्वीकार कर मुनिश्री ने तोवरी में चातुर्मास करना निश्चय कर लिया, इस हालत में प्रदेशी समुदाय वाले चर्चा और निन्दा करें यह तो एक स्वभाविक बात थी। उन्होंने कहा कि गयवरचन्दजी श्रद्धा से भ्रष्ट हो जाने पर पूज्यजी महाराज ने अपनी समुदाय से निकाल दिया, ऐसा पतित साधु चातुर्मास कर समाज का क्या भला करेगा। इस पर देशियों ने जवाब दिया कि देशी समुदाय वालों ने न तो आज पर्यन्त मूर्ति को निन्दा की, न सूत्रों के पाठ को छिपाया और न गलत अर्थ ही किया है । हाँ, यह कार्य प्रदेशियों ने जरूर किया । यही कारण है कि आत्मारामजी वगैरह प्रदेशियों के साधु निकल २ कर संवेगी हुए हैं, यदि गय. वरचन्दजी महाराज भी संवेगी हो जावेंगे तो हम क्या करें, शर्म आनी चाहिये प्रदेशियों को, इत्यादिकई प्रकार की चर्चा होती रही ! फिर भी मुनिश्री कई दिन तक तीवरी में ठहर कर डंके की चोट व्याख्यान देते हो रहे, और आप यह भी कहते रहे कि यदि किसी के अंदर सत्यता एवं शक्ति हो वे मेरे सामने आवे । पतित मैं हूँ या मुझे पतित कहने वाले पतित हैं । श्रद्धा और आचार इन दोनों के विषय श्राप व्याख्यान में ही खुलासा कर दिया करते थे, जिसमें देशी समुदाय वाले तो केवल आप पर ही नहीं बल्कि मूर्ति के प्रति भी श्रद्धा सम्पन्न बन गये ।
बाद में श्राप २५ श्रावकों के साथ श्री ओसियाँजी तीर्थ पर