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आदर्श-ज्ञान
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की ओर दृढ़ हो गई है। ऐसी हालत में मूर्तिपूजकों के यहां से शास्त्र लाकर पढ़ना उनको खटकने लगा । उन्होंने एक दो बार विनय के साथ मना भी किया, पर आपने उस पर ध्यान नहीं दिया । तब वे श्रावक मिलकर रतलाम गये और सब छाल पूज्यजी महाराज श्री से निवेदन किया । पूज्यजी महाराज के कहने से अमर
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चन्दजी साहब ने मुनिश्री को एक पत्र लिखा कि आप जो बिना गुरु आज्ञा के शास्त्र पढ़ते हो, वह ठीक नहीं है; तथा पूज्यंजी महाराज की इसके लिये सख्त मनाई है। अतः आप जब तक पूज्यजी महाराज से न मिल लें, तब तक कोई भी शास्त्र व प्रन्थ दूसरों से लाकर नहीं पढ़ें, इत्यादि । सादड़ी के श्रावक पत्र लेकर आये और उन्होंने वह पत्र मुनिश्री को दे दिया । आपने पत्र लेकर सिर पर चढ़ा लिया, किन्तु शास्त्र पढ़ना बन्द नहीं किया ।
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श्रावकों ने कहाः – महाराज ! पूज्यजी महाराज के मनाई कर देने पर भी आप मन्दिर - मागियों के वहां से पुस्तकें मँगवा कर पढ़ा करते हो, यह ठीक नहीं है क्या आप पूज्यजी महाराज की आज्ञा भी स्वीकार नहीं करते हैं ?
मुनि - इस बात की पंचायत के लिए आपको पंच मुकर्रर नहीं किया गया है जो आप मुझे कुछ कह सकें । आपने क्या नहीं देखा था कि पूज्यजी महाराज का पत्र आते ही मैंने सिर पर चढ़ा लिया था; परन्तु शास्त्र पढ़े बिना मेरे से रहा नहीं जाता । पूज्यजी महाराज यदि ज्ञानाभ्यास करने को भी अन्याय समझेंगे ता जो कुछ दंड प्रायश्चित वे देंगे, वह में स्वीकार करूंगा । श्रावको ! मैंने घर ही ज्ञानाध्ययान के लिये छोड़ा है, समझ गये न ?
श्रावक — खैर, आप ज्ञानाध्ययन भले ही करें, किन्तु आप