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________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५२६ में मारवाड़ी साधु के व्याख्यान में इस विषय को सुना है, उन्होंने कहा कि अभव्य जीव को चार नय की समकिन होती है, नौवा पूर्व की तीसरी आचार वस्तु तक ज्ञान पढ़ता है और चारित्रपद की आराधना से वह नौग्रीवेग तक जा सकता है, इत्यादि । इसके जवाब में सागरानंदसरि ने झट से कह दिया कि वह ढूंढ़ियों से पाया है और न टीकात्रों के शास्त्रों का अभ्यास ही किया है, वह बिचारा मारवाड़ी साधु क्या समझता है; भगवती सूत्र में । उसको गुरु गम्य भी नहीं है, पर लोग गाड़री प्रवाह होते हैं, जोऐसे अज्ञों के व्याख्यान को सुन कर खुश हो जाते हैं । सागरजी के व्याख्यान में एक मारवाड़ी बैठा था । सागरजी ने मारवाड़ और मुनिश्री का हल्के शब्दों द्वारा तिरस्कार किया वह उससे सहन नहीं हुआ, और उसने कहा कि महाराज ! ज्ञानसुंदरजी महाराज भी शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता हैं; उन्होंने भी तो कुछ कहा होगा वह ठीक सोच समझ के ही कहा होगा। सागरजी०-क्या सोच समझ के कहा, यह हमारे पास श्री भगवती और उसकी टीका तैयार है, तुम देख लो। ___ श्रावक०-मैं कोई शास्त्र थोड़े ही पढ़ा हुआ हूँ, यदि मुनिश्री ज्ञानसुंदरजी महाराज इस समय आपके रूबरू होते तो आपको माकुली जवाब देते ही। सागरजी०-अच्छा, तुम ज्ञानसुन्दरजी को पत्र लिख कर जवाब मंगवा लो। श्रावक-ठीक है, मैं लिख दूंगा-भंडारीजी ने अपने स्थान पर जा कर सब हाल पत्र द्वारा मुनिश्री को लिख दिया और संयोगवशात वह सुरत का श्रावक भी बंबई से पुनः सुरत आ गया और
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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