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________________ ८२ श्री सागरजा के साथ प्रश्नोत्तर मुनिश्री व्याख्यान में श्री भगवती सूत्र पहिले शतक का दुसरा उद्देशा बाँच रहे थे, उसमें असंयतिभविद्रव्यदेवादि चौदह बोलों का वर्णन चल रहा था, जिसकी व्याख्यान में आपने फरमाया कि असंयतिभविद्रव्यदेव मर कर देवताओं में जावे तो जघन्य भवनपति और उत्कृष्ट नौवी नौग्रीवेग तक जा सकता है और इसमें अभव्य जीव भी शामिल है। .. ____ श्रावक ने प्रश्न किया कि अभवी नौग्रीवेग तक जाता है, अतः वह ऐसी क्या क्रिया करता है कि इतना ऊँचा जासके ? मुनि०-अभव्य के भी चार नय की समकित होती है, नौवा पूर्व की तीसरी आचार वस्तु तक वह ज्ञान पढ़ता हैं, और चारित्रपद की आराधना करने से वह नवी नौग्रीवेग तक जाता है । इस बात को सुन कर सुरत का एक श्रावक बंबई गया, वहाँ सागरानंदसूरिजी का चतुर्मासा था, और आप भी श्रीभगवतीसूत्र १.२ ही बांच रहे थे। संयोम ऐसा बना कि सुरत का श्रावक मुनिश्री के पास जो व्याख्यान सुन के बंबई गया था, वही असंयतिभवीद्रव्यदेव का विषय सागरानंदसूरि के व्याख्यान में चलता था; उन्होंने कहा कि अभव्य जीव दीक्षितों की पूजा सत्कार देख कर स्वयं पूजित होने के श्राशय से दीक्षा लेता है और कष्ट क्रिया करने से नौग्रावेग तक जाता है; उसके समकित नहीं होती है, वह नौ तत्वों से मोक्ष तत्व को श्रद्धता भी नहीं है, इत्यादि । सुरत के श्रावक ने कहा कि महाराज मैंने सुरत के बड़ेचोटे
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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