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________________ आदर्श-ज्ञान १४० - समुदाय के स्तम्भ समझते हो, इन चारों की श्रद्धा मूर्तिपूजा की ओर प्रवृत मान हो गई है 1 पूज्यजी - आप यह बात किस आधार पर कहते हैं ? श्रावक - हम कर्मचंदजो तथा शोभालालजी से तो इस विषय में खूब अच्छी तरह से बातें कर चुके हैं । कनकमलजी तथा गयवरचंदजी के साथ तो प्रश्न करने का समय नहीं मिला है, किन्तु हमने यह सुना है कि इनकी भी श्रद्धा मूर्ति पूजा पर है। पूज्यजी - ठीक है, मैं इनका निर्णय कर, इन्तजाम कर दूंगा । श्रावक - अब केवल इन्तजाम से काम नहीं चलेगा, आप या तो सख्ती से काम लो, अथवा इन चारों को समुदाय से अलग करदो, नहीं तो ये और भी साधुओं को बिगाड़ देवेंगे । पूज्यजी स्वयं मूर्तिपूजा से अज्ञात नहीं थे, वे अच्छी तरह से समझते थे कि जैन सूत्रों में मूर्तिपूजा का उल्लेख स्थान २ पर आता है; किन्तु श्रावकों के दबाव या अपनी प्रतिष्ठा के लिए आपको जान बूझ कर अन्य मार्ग का अवलंबन करना पड़ता था सबसे पहिले श्रापकी बात चीत कर्मचन्दजी महाराज से हुई, जो पूज्यजी महाराज से दीक्षा में बड़े थे । पूज्यजो — कर्मचंदजी महाराज, श्राप धोवण क्यों नहीं पीते हो ? कर्मचंदजी - धोवण फाशुक नहीं मिलता है । पूज्यजी - क्या श्राप धोवण में जीव होना मानते हो ? कर्म० - मैं क्या, शास्त्रकार रसचलित धोवण में जीवनोत्पन्न होना बतलाते हैं। पूज्यजी - क्या सब धोक्ण रसचलित होता है ?
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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