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________________ ३०९ सं० ५० मुनियों से प्रश्न जी (हाल के सागरानन्द सूरि ) को, जो संवेगी समुदाय में एक सर्वोपरि शास्त्रज्ञ बतलाये जाते हैं । आपकी पत्र लिखने की पद्धति इतनी सुन्दर थी कि जिन आचार्य मुनिवरों को जो पदवी उपाधि थी उन विशेषणों के साथ आप सविनय जिज्ञासु बन कर प्रश्न पछते थे। - (१)पन्नवणा सूत्र पद १२ वाँ में असुरकुमार के देवताओं के बैक्रिय शरीर के वंदेलगा सूची प्रांगुल के प्रथमवर्गमूल के संख्यात वें भाग जितने कहा है, तब इसी पन्नवण सूत्र के तीसरे पद में ९८ बोल की अल्पा बहुत की, टीका में प्रथम वर्ग मल, तीसरा वर्ग के गुणा करने से प्रदेशो की राशि हो, इतना प्रमाण बतलाया है। इसका क्या कारण है ? (२) पन्नवणापद ३६ वें पद की टीका में केवली समुद्धात करें, जिसके प्रथम समय में ३९ प्रकृतियों की सत्ता कही गई है। इसमें श्रताप उद्योत भी है । और दूसरे कर्म ग्रन्थ की गाथा २८ में पूर्वोक्त दोनों प्रकृतियों का नौवें गुणस्थान के दूसरे भाग में अभाव कहा है । अतः जिन प्रकृतियों का नौवें गुण. में क्षय हो गया है, उनको सत्ता तेरहवें गुणस्थान तक कैसे ठहर सकती है ? इन सूत्रों का संशोधन तथा मुद्रण आपकी ही अध्यक्षता में हुआ है ? ___ (३) आचरांग सूत्र अ० १, उ०३ में अवस्थित काल की स्थिति आठ समय की कही है, पर भगवती सूत्र के श० २५, उ० ६-७ वें में सात समय की कही है । इसका क्या कारण है ? (४) जीवाभिग सूत्र में तीन वेदों की पल्पा बहुत में खेंचर पुरुष संख्यात, गुणा और पन्नावणा सूत्र पद तीन में खेचर पुरुष असंख्यात गुणा कहा है, इसका क्या कारण है ?
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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