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________________ आदर्श-ज्ञान हैं मेरे अवगुणों का आर किसो प्रकार का खयान न करें, और सब अपराधों को क्षमा करदें। __ पूज्यजी०-गयवरचंदजी ! मैं तुम्हारे से बहुत प्रसन्न हूँ और तुम्हारे लिए मुझे गौरव भी है कि तुम हमारे एक ही साधु हो किन्तु क्या करूँ मेरी प्रकृति ही ऐसी है कि मैं मेरे अपमान को सहन नहीं कर सकता। दूसरे मैं गुस्सा भी योग्य साधु पर ही करता हूँ, तुम देखते हो इतने साधु हैं पर मैं दूसरे किसी से भी कुछ नहीं कहता हूँ। इस प्रकार गुरु चेले में प्रेम की बात होकर, दोनों ने अपने स्थान पर जाकर संस्तार कर लिया। अन्य साधुओं के दिल में कई प्रकार के विकल्प हो रहे थे, कई तो कह रहे थे कि देखो बेचारा गयवरचंदजी सत्य बात कहने पर भी इस प्रकार मारा जाता है; कई कहते थे कि गयवरचंदजी ने पूज्यजी महाराज के सामने बोल कर आशातन की है, इसका दंड मिलना ही चाहिए। किन्तु सुबह उठकर देखा तो गयवरचंदजी पूर्ववत् पूज्यजी की सेवा में सब कार्य कर रहे थे और पज्यजी की भी सब तरह से शुभ दृष्टि पाई गई । दूसरे को तो क्या पर खुद मोडीराम जी महाराज को भी मालूम नहीं हुआ कि पूज्यजी और गयवर चंदजी के आपस में कैसे शान्ति हुई, अर्थात् जैसे पूज्यजी महार ज चतुर मुत्सद्दी थे वैसे गयवरचंदजी भी कम नहीं थे। बीकानेर के चतुर्मास में हमारे चरित्र नायकजी ने एक अढ़ाई दो पचोले और फूटकर कई तपस्या की और तीन तपस्वियों की खूब ही व्यावच्चकी, इनके अलावा,श्री आचरंगपूत्र, उत्तराध्यनसूत्र,
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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