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________________ ९७ सं० १९६५ का चातुर्मास बीकानेर में थोड़ा बहुत दोष तो लग ही जाता है, किन्तु उसकी अलोचना करने से शुद्ध हो जाता 1 गयवर० - किन्तु जान बूझ कर माया करना भी तो निर्दोष ह्रीं गिना जाता है न ? पूज्यजी - तुम तो हर बात में तर्क किया करते हो । गयवर०- - किन्तु यह सिखाया किसने ? पज्यजी - खैर, अब क्या करना है? - जैसी आपकी आज्ञा हो । ܟ गयवर० पूज्यजी - मैंने तो तुमको चतुर्मासिक प्रायश्चित दे दिया है, उसको मंजूर करलो, तब ही आहार जल शामिल होगा । गयवर० – नित्य पिंड़ मुझे भुगतना पड़े । फिर भी कार करने को तैयार हूँ । आहार लाये आपकी यही आप और उसका दंड आज्ञा है, तो मैं रवी पूज्य जी० – नित्य पिंड आहार मैं जानबूझ कर लाया, जिसका प्रायश्चित मैंने ले लिया है, किन्तु तुमको हमारे सामने बोलने का प्रायश्चित तो लेना ही पड़ेगा । गयवर० - यदि आपने नित्य पिंड का प्रायश्चित ले लिया है, तो आपके दिये हुए प्रायचित को मैं स्वीकार कर ही लूँगा । पूज्यजी ० – मैंने मासिक प्रायश्चित ले लिया है तुम चातुर्मासिक प्रायश्चित का चार एकासना कर देना । - गयवर० - ठीक है, आप आज्ञा देते हैं तो मैं चार एकासना कर लूँगा । क्योंकि बड़ों की प्रसादी छोटों को भी मिलती है । पूज्य जी०-- बस, अब तो तुम्हारा दिल प्रसन्न है न १ गयवर० - जी हां हुजूर ! मैं तो आपका पुत्र हूँ आप मेरे पिता
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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