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मुनिश्री की विशाल भावन
बाड़ाना साधु थइ ने आ मोहनलालजो ना साधुओं ने साथे केम विचरो हो ?
मुनि - आ थी शुं थयो, तमेतो चौरासी जाति ना वाणीओ ने साथ रहो छो तो शुं श्रमने बीजा साधुओं नी साथे विचरवा नो पण अधिकार नथी ? अमारा गुरु महाराज नो हृदय तो टलो विशाल छे के पांचांगी पूर्ण आगमों ने माने छे ते गमे ते गच्छ सिंघाड़ाना साधु होय अमारे साथ रहो सके छे अने ते पण तेनी इच्छा होय जेटला वख्त सुधी भेटले मैत्रिक भाव थी रहनुं जोइए । श्रावक — ठीक छे साहेब |
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मुनि श्री की विशाल भावना का उपस्थित श्रावकों पर अच्छा प्रभाव पड़ा बाद वन्दन कर चले गये ।
दूसरे दिन मुनिश्री का व्याख्यान उसी बंड़ा में व्याख्यानपीठ पर हुआ, व्याख्यान का विषय था 'पट द्रव्य' जो सातनय चार निक्षेपों पर छः द्रव्यों को घटाया गया था, और उनके द्रव्य गुण पर्याय विषय को खूब विस्तार से समझाया जिसको सुनकर श्रोतागण और विशेषतः कुँवरजी भाई बहुत ही प्रसन्न हुए ।
तीसरे दिन मुनिश्री का व्याख्यान श्रात्मानंद सभा के हॉल में हुआ, यह सार्वजनिक व्याख्यान था, विषय 'श्रात्मा और कर्म' का था, इस व्याख्यान का तो जनता पर बहुत ही जबरदस्त प्रभाव पड़ा तथा उन्होंने शायद ही इस विषय का ऐसा व्याख्यान पूर्व - कभी सुना हो। कई जैनेतर लोग जैनों को नास्तिक कहते हैं, पर आपका आत्मा के विषय का व्याख्यान सुन कर उनको भी कहना पड़ा कि जैन नास्तिक नहीं पर पक्के भास्तिक हैं ।
त्रिपुटी मुनिवरों ने तीन दिन भावनगर में ठहर कर वहां के