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समझाने को फिर आये गृहस्थी, जो उनमें अगेश्वर थे । आगम अनुभव उन्हें बताया, पूजा फल पदेश्वर थे । ठकुरा दिया पदवी महत्व को, दर्शन सामने क्या था धन । उत्सूत्र से थी संसार वृध्दि, हटा लिया था उससे मन ॥४१॥
हुक्म दिया गुरुवर ने ऐसा, इस तीर्थ का करो उद्धार । जन्म भूमि है यह आपकी, श्रोसवंश का हुआ प्रचार । विद्यालय की करी योजना, शान्ति स्नात्र पढ़ाई थी ।
हिसाब साफ रखने के लिए, पेढी वहाँ खुलवाई थी॥४२॥ नित्य नया स्तवन बना कर, वीर स्तवना करते थे। प्रतिमा छतीसी थी लघु कविता, पढ़ के अज्ञ कई जरते थे । गुरु आज्ञा से तींवरी जाकर, चौमासा वहाँ ठाया था। डोंरा सहित मुहपत्ती, मुँह पर, कई अज्ञों को समझाया था ॥४॥
सूत्र भगवती व्याख्यान बीच में, इस कदर फरमाते थे । सुनकर श्रोता वीर वाणी को, आनन्द खूब मनाते थे । प्रभाव आपका था अति भारी, कई जन लाभ उठाये थे ।
श्रद्धा अनेकों की हुई पूजा से, संघसाथ श्रोसियाँ आयेथे ॥४४॥ चातुर्मास में प्रतिमा छतीसी, छपकर के प्रसिद्ध हुई । जिसका लाभ सादड़ी लीना, समाज में जागृति हुई ॥ शाल बहत्तर मौन एकादशी, तीर्थ औसियाँ दीक्षाधार । रत्नविजय गुरु के चरणो में, उपकेशगच्छ का किया उद्धार ॥४५॥
ज्ञानसुंदर शुभनाम आपका,गुणनिष्पन्न गुरुवरने दिया। अथाह परिश्रम से विद्यालय, सार्थ अपना नाम किया । पोष तृतीया कृष्णपक्ष की, बड़ी दीक्षा गुरुवर के हाथ । गुरु पधारे ग्राम कोसाने भंडारी थे उनके साथ ॥४६॥