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________________ दो शब्द लौंका ढूंढिया और स्थानकवासी समुदाय को असत्य समझकर उनके अन्दर से निकलकर पूज्य मेघजी० बुटारायनी श्रात्मारामजी बगैरह अनेक साधु समय समय संवेग पक्ष को स्वीकार करते आये है जिसमें गयवरचन्द्रजी भी एक हैं | संवेग पक्ष में आने के पश्चात् वि० सं० १९७२ में ओसियां तीर्थ पर परम योगीराज मुनिश्री रतनविजयजी महाराज के पास संबंग दीक्षा ली थी और आपका नाम ज्ञानसुदरजी रक्खा गया था । गुरुवर्य की श्राज्ञानुसार श्राप उपकेशकच्छ की क्रियासमाचारी करते हैं जो ग्राय: तपा• गच्छ की समाचारी से मिलती जुलती ही है । आप स्वतंत्र विचार के एक निडर एवं वरि साधु हैं । आपकी शुरू से सत्य कहने एवं लिखने की आदत होने से श्राप इतने प्रिय नहीं बन सके कि जितने हाँ में हाँ मिलाने बाले बन सकते हैं आप शासन के शुभचिन्तक एवं हितैषी हैं। शासन का अहित करने वाली प्रवृति श्राप से देखी नहीं जाती हैं फिर कोई माने या न माने पर आप अपनी अन्तरात्मा की पुकार किये बिना क़दापि नहीं रहते हैं । आप ढूंढियापंथ छोड़ के आये और तीसरे ही वर्ष श्रीसिद्धगिरी की यात्रार्थ गुजरात की ओर विहार किया और गुजराती साधुओं का जघन्य आचार व्यवहारादि देखा तो आप से रहा नहीं गया । स्थान स्थान पर श्रापने भाषण व्याख्यान दिया पर हिनाचारियों के साम्राज्य में श्रापकी पुकार सुनता कौन । अतः श्रापने परमात्मा सीमंधर स्वामी की सेवा में एक कागद हुंडी, पैंठ, परपैंठ और मेझरनागा रूपी विनती लिखकर भेजी और अपने दग्ध हृदय को शान्त किया । पर यह तो समय था कलिकाल का, उस शासन सेवा का यह फल मिला कि संवेग-पक्षीय श्रमण समाज श्राप पर एक दम टूट पड़ा और पापी, नास्तिक, भव्य और अनंत संसारा कह कर संघ बाहर ठोक देने की तैयारी कर ली पर जब आपने एक सिंहगर्जना की तो पासत्यों की क्या ताकत कि वे आपके सामने चुं तक भी कर सकें ।
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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