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रतलाम में शास्त्र चर्चा
सेठ० - लौंकाशाह गृहस्थ था; ज्ञान कितना था यह मालूम
नहीं है !
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मुनि० - फिर एक गृहस्थ की परम्परा को मान कर शेष शास्त्रों का अनादर करना; क्या यह वीतराग शासन को उन्मूल करना नहीं है ?
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सेठ ० - ३२ सूत्रों के अतिरिक्त सत्रों में पीछे से प्राचार्यों ने कई पाठ प्रक्षेप कर दिये हैं ।
है ?
मुनिः - इसका क्या सबूत सेठ ० – उनमें मूत्ति-विषयक पाठ हैं ।
मुनि-मूर्त्तिविषयक पाठ तो ३२ सूत्रों में भी है; फिर इनको क्यों माना जाता है ? यदि कोई व्यक्ति इन ३२ सूत्रो में भी प्रक्षेप कह दे, तो आप कैसे निर्णय कर सकेंगे ?
सेठजी ने इसका जवाब न देकर कह दिया कि कुछ भी हो अपने पूर्वजों ने ३२ सूत्र ही माने हैं; अतः अपने को भी ३२ सूत्रों की ही श्रद्धा रखनी चाहिये ।
मुनि - अपने पूर्वज तो भगवान् महावीर देव या श्रोसवाल बनाने वाले आचार्य रत्नप्रभ सूरि हैं, उनको ही मानना चाहिये । यदि शास्त्रों की रचना करने वालों को मानो तो द्वादशाङ्ग के निर्माण कर्ता गणधर सौधर्माचार्य हैं और उपाङ्गादि की रचना करने वाले स्थविर पूर्वधराचार्य हैं, जो देवऋ द्विगणि क्षमाश्रमण के पूर्व हुए थे। अगर आगम पुस्तकारूढ़ करने वालों को अपने पूर्वज कहा जाय तो प्राचार्य देवऋद्धिगणि क्षमाश्रमणजी को समझना चाहिये ।