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________________ ६१७ तारंगा जी पर उपधान लीला देखने के लिए वहाँ तीन दिन ठहर गये; वहाँ रहकर सब हाल देखा या सुना जिसको मेमरनामा में फिर से संकलित कर दिया । शायद सब उपाधान कराने वाले पन्यासों का यह हाल नहीं भी होगा परन्तु इनमें कनक, कामिनी से अस्पर्शित तो शायद ही कोई रहता होगा; कारण जहाँ अधिक परिचय होता है वहाँ मन, वचन, और काया से किसी न किसी प्रकार का पाप तो लग ही जाता है । यह प्रवृति इतनी खराब है कि चाहे क्रिया कराने वाला पाक भी हो पर उनके शिष्यों का चारित्र पवित्र नहीं रह सकता है, कारण सब एक सी प्रकृति वाले नहीं होते हैं, यही कारण है कि गुजराती साधु-साध्वियों में इसकी मात्रा बढ़ी हुई है। दूसरे द्रव्य -यह तो प्रकट ही नक्कारा वासक्षेत्र वगैरह: के लिए लेते ही है, हाँ चाहे साधु अपने पास में न रखें किन्तु उस पर स्वामित्व तो - साधुओं का ही रहता है; यह ही कारण है कि वे साधु मन चाही मौज मजा कर सकते हैं । यह बात तो अब किसी से अनजानी नहीं रही है कि किसी साधु के पाछ पांच लाख, तो किसी के पास तीन लाख, किसी के पास एक लाख या कर लादा स्टाक जमा रहता ही है; योग उपधान कराने वाला शायद ही कोई ऐसा आचार्य पन्यास होगा कि जिसके पास हजारों, लाखों की रकम जमा नहीं हो । केवल साधु ही क्यों पर मारवाड़ की साध्वियों के पास भी हज़ारों की रकम जमा रहती है और कई विकटावस्था में इज्जत रखने में काम भी आती है । पढो अवचलश्री के बयान | तारंगाजी में एक गुजराती भाई मुनिश्री के पास दीक्षा लेने
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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