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भादश-ज्ञान
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न हो, और मैं स्वयं दीक्षा भी ले लूंगा, पर आखिर मैं शिष्य किसका कहलाऊँगा ।
भंडारीजी-आपके गुरू पूज्यजी महाराज ही हैं । यदि आप स्वयं दीक्षा लेंगे तो भी पूज्यजी महाराज श्रापको पास में रख ज्ञानाभ्यास करवाया करेंगे। __ रात्रि में एक बजे यह निश्चय हुआ कि गयवरचंदजी लोकापवाद के कारण पूज्यजी महाराज के पास नहीं, पर निबाड़े जाकर मगसर कृष्णा ५ के दिन गृहस्थी वेष का त्याग एवं साधु वेष को स्वीकार कर भिक्षाचारी शुरू करदें, केवल ओघा की दाड़ी पर कपड़ा ( नीसथिया ) नहीं रखें, यह निश्चय कर भंडारीजी और गयवरचंदजी पूज्यजी को वन्दन करके, अपने स्थान पर चले गये और पूज्यजी महाराज ने भी सुख से शयन किया।
१४-पेशाब से घृणा और चाण्डाल की योनी
भंडारीजी और गयवरचंदजी रात्रि में एक मकान में सो रहे थे । प्रातः काल हो गयवरचन्दजी ने कहा कि भंडारीजी साहब, मैं दोघशंकार्थ (टट्टी) जाता हूँ। भंडारीजी ने कहा, ठहरो मैं लोटा ला देता हूँ। भंडारीजी ने एकान्त में जाकर एक लोटे में पेशाब कर के ऊपर दॉक दे कर आपको दे दिया। आपने समझा कि लोटे में पानी होगा, किन्तु जब निपट कर शौच-शुद्धि करने लगें तब मालूम हुआ कि लोटे में पेशाब है । बस आपको इतनी घृणा आई कि वहाँ से सीधे ही कुएँ पर जा के स्नान किया