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________________ ५५ साधुओं० भिक्षाचारी ___भंडारीजी-पूज्य महाराज ! गयवरचंदजी का वैराग्य हल्दी के रंग के समान नहीं है; आप वैद्य मेहता के खानदान के हैं, चढ़ती जवानी और बढ़ता वैराग्य । जब इस मगर पचीसी में तरुण औरत और सुख साहिबी की आपको चिन्ता नहीं है, तो स्वयं दीक्षा और भिक्षाचारी करने में कब पीछे हटेंगे। ___ पूज्यजी-हाँ भंडारीजी, श्रापका कहना सोलहों आना सत्य है, गयवरचंद ऐसे ही बहादुर हैं। यदि आप दीक्षा लेंगे तो मैं मेरी पूज्य पदवी का सर्वाधिकार आप ही को दे देऊँगा, क्योंकि आप पूज्य पदवी के योग्य हैं। ____भंडारीजी-हाँ पूज्य महाराज! आपके इतने साधुओं में गयवरचंदजी की सानी का एक भी साधु नजर नहीं आता है। जैसे आप इस युवावस्था में प्राप्य ऋद्धि के त्यागी हैं, वैसे ही आप बुद्धिमान भी हैं। आपने जो ज्ञान दो मास में कण्ठस्थ किया है, उसे दूसरे साधु दो वर्षों में भी नहीं कर सकते हैं। पृष्यजी- क्यों गयवरचन्दजी, आपके क्या जचती है? गयवर०-जो महाराज की आज्ञा हो, वह शिरोधार्य है। भंडारीजी-पूज्य महाराज का तो यही अभिप्राय है कि आप फिलहाल गृहस्थी के कपड़ों को त्याग कर भिक्षाचारी शुरू करदें। अब समय में आपको आज्ञा मिल जायगी तो पूज्य महाराज अपने हाथों से आपको दीक्षा देदेंगे; अन्यथा २-४ मास में आप म्वयं दीक्षा लेकर साधु बन जाइये, जैसे पूज्य महाराज बन गये थे और पूज्य महाराज भापकी सब तरहसे सहायता करेंगे। . गववरचंद-खैर मैं मिक्षाचारी करलं, कदाचित् मेरी श्राक्षा
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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