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________________ आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड जी ने मुनिश्री को अपने पास रहने के लिये बहुत कहा था, पर आपने कहा कि अभी तो मुझे बहुत से साधुओं से मिलना है । वहां से क्रमशः वटादरे गये, वहाँ प्लेग के कारण आचार्य विजयकमलसूरि, उपा० वीरविजयजी, दानविजयजी, लब्धिविजय जी वग़ैरह ग्राम के बाहर डेरा साइवान लगा कर ठहरे थे । वहां आचार्यश्री से मिले, इनमें उपा० वीरविजयजी अच्छे साधु थे, तथा दूसरे साधुत्रों में एक लब्धिविजयजी नामक सांधु बड़े ही शिष्य पिपासु थे; उसके साथ वार्तालाप होने से तथा मुनि श्री का ज्ञानाभ्यास एवं शास्त्रीय प्रश्न करने से लब्धिविजय को इतना लोभ हो आया कि जैसे बने वैसे मुनीजी को अपने पास रख लें, इतना ही नहीं पर आपका मनोरथ तो मुनिश्री को अपना शिष्य बनाने का ही था, पर मुनिजी भी ऐसे भोले भट्ट नहीं थे कि गुज रातियों के जाल में फंस जावे । ५०० दूसरे दिन विहार किया तो लब्धिविजयजी ने अपने शिष्य गंभीरविजय को मुनिश्री के साथ तीन कोस तक समझाने को भेजा । गंभीर विजयजी ने अपने गुरु की बहुत सी तारीफें करीं, कई लाख रुपयों की पुस्तकों का लोभ बतलाया और श्राचार्य पदवी का जादू भी डाला; किंतु आस्त्रिरकार वे अपने कार्य में सफल हो वापिस लौट गये । वहां से पेटलाद बोसरोद होते हुए गंभीरे गये, वहां नदी बहती थी, सब साधुओं को नाव में बैठना पड़ा, खैर क्रमशः पादरा होकर बड़ोदरे पहुँचे तथा वहां चार दिन की स्थिरता की। मारवाड़ी श्रावकों के आग्रह से एक दिन उपाश्रय में तथा दूसरे दिन पब्लिक में श्री का व्याख्यान हुआ ।
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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